हिंदी और अंग्रेजी दोनों में समान रूप से गतिशील और प्रतिष्ठित,नयी पीढ़ी के प्रखर और विरल रचनाकार
आशुतोष भारद्वाज ने मेरी कहानी
'नींद बाहर' पढ़ कर एक विचारोत्तेजक खत भेजा है जिसे आप मित्रों के लिए साझा कर रहा हूं---
टिप्पणी
आदरणीय धीरेंद्र जी,
जब आपने कहा था कि यह कहानी निर्मल वर्मा और राजेंद्र यादव, दोनों को पसंद आयी थी तो मुझे आश्चर्य नहीं हुआ था। वे भले ही विपरीत वैचारिक ध्रुवों पर दिखाई देते हों, दोनों उत्कृष्ट गद्य के पारखी थे। यादव जी से मेरी कई मुलाक़ातें थीं। हंस के पच्चीस वर्ष पूरे होने पर मैंने यादव जी पर इंडियन एक्सप्रेस में लम्बा लेख लिखा था। वे निर्मल से सार्वजनिक तौर ज़रूर लड़ते रहे हों, मेरे साथ बातचीत में वे निर्मल की उपस्थिति का सम्मान करते थे। निर्मल की कहानी 'सूखा' हंस में ही छपी थी।
कुछ क्रांतिवीरों को यह जानकर शायद अचम्भा होगा कि ज्ञान रंजन की कहानियों के अंग्रेज़ी अनुवाद का ब्लर्ब निर्मल ने लिखा था, और आगे चल मंगलेश डबराल ने अपनी एक किताब जिन लेखकों को समर्पित की थी, उनमें शमशेर बहादुर सिंह के साथ 'गद्य शिल्पी' निर्मल वर्मा भी थे। मंगलेश जी ने अज्ञेय के जाने के बाद बड़ा मार्मिक संस्मरण भी लिखा था, यह रेखांकित करते हुये कि "यह एक ऐसे कवि और शिल्पी का जाना है जिसने हिंदी कविता को छायावादी कुहासे से बाहर लाकर एक नयी भावभूमि दी, आधुनिक चेतना से उसका संस्कार किया...आज हिंदी में जो आधुनिक, विश्व-स्तर पर रख सकने लायक कविता लिखी जा रही है, वह शायद संभव न होती अगर उसके स्रोत पर वात्स्यायन का योगदान न हुआ होता।"
ख़त के आरम्भ में यह भूमिका कुछ निर्मल और यादव जी के स्मरण से उपजी, और कुछ आपकी कहानी से। एक धीमा और बारीक भय इस कहानी पर रिसता रहता है, अयोध्या का साया काली चील की तरह मँडराता रहता है। कहानी के पन्नों में अयोध्या सिर्फ़ एक स्याह आशंका है, एक घबराई फुसफुसाहट, एक मचलता संकेत जो किरदारों को मथता रहता है, लेकिन चूँकि यह सतह पर नहीं फूटता, पाठक को हमेशा सतर्क रखता है। ब्योरों का (सायास) अभाव किसी आख्यान को किस क़दर कोंचता और कुरेदता रहता है, यह कहानी उसका उदाहरण है। इस कहानी की राजनीति इस सम्भावना में मुकम्मल हो जाती है कि शायद धनराज एक ईंट लेकर अयोध्या जाता दिखाई दिया था। कहानी यह नहीं कहती कि वह अयोध्या पहुँच गया था या गया भी था, सिर्फ़ जाता दिखाई दिया था।
जोधपुर से एक व्यक्ति सिनेमा के सपने लिए बम्बई आता है, विफल होने पर व्यापार करने लगता है, और फिर अचानक एक ईंट लिए अयोध्या जाता दिखाई देता है। यह समूचा कारोबार नींद के बाहर घटित होता है। लेकिन हम ख़ुद को बहलाते चलते हैं कि हम शायद कोई डरावना सपना देख रहे हैं, इस जागृत सांत्वना के साथ कि नींद टूटते ही हम अपने सुख में लौट आएँगे, जबकि नींद ने कबका हमें उठाकर बाहर फेंक यक्ष दिया था।
कोई कहानी शायद इसी तरह मुकम्मल होती होगी।
सादर,
आशुतोष
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