रविवार, 14 नवंबर 2021

कृष्ण और राधा का पुनर्मिलन !

कुंवारे कृष्ण और विवाहिता  राधा की प्रेम कहानी को हमारी संस्कृति की सबसे आदर्श और पवित्र प्रेम-कथा का दर्ज़ा हासिल है। विवाहेतर और परकीया प्रेम के ढेरों उदाहरण विश्व साहित्य में है, लेकिन इस प्रेम को आध्यात्मिक ऊंचाई सिर्फ भारतीय संस्कृति और काव्य ने दिया है। ऊंचाई भी कुछ इतनी कि हिन्दू धर्म के रूढ़िवादियों को भी इस बात पर अचरज नहीं होता कि कृष्ण की पूजा उनकी पत्नियों की जगह राधा के साथ क्यों होती है। और यह भी कि राधा अपने पति के बजाय कृष्ण के साथ क्यों पूजी जाती है। पुराणों के अनुसार कृष्ण राधा से उम्र में छोटे थे और इस गहरे प्रेम का अंत भी बहुत शीघ्र ही हो गया। परिस्थितिवश कृष्ण किशोरावस्था में गोकुल से मथुरा गए और फिर मथुरा से द्वारिका पलायन कर गए। विस्थापन के बाद राजकाज की उलझनों, मथुरा पर कंस के श्वसुर मगधराज जरासंध के निरंतर आक्रमणों और द्वारिका को बसाने की कोशिशों के बीच कृष्ण को कभी इतना अवसर नहीं मिला कि वे दुबारा राधा से मिलकर उन्हें सांत्वना और प्रेम का भरोसा दे सके। युवा और प्रौढ़ हो जाने के बाद किशोरावस्था की उन्मुक्त चेतना धीरे-धीरे साथ छोड़ जाती है। उसकी जगह सामाजिक और पारिवारिक मर्यादाओं का संकोच हावी होने लगता है। कृष्ण ने चोरी-छिपे दूत के रूप में भरोसा और आध्यात्मिक ज्ञान बांटने के लिए मित्र उद्धव को राधा के पास जरूर भेजा, लेकिन विरही मन कहीं अध्यात्म की विवेचना सुनता है भला ? 


ज्यादातर पुराणों में गोकुल से जाने के बाद कृष्ण की राधा से मुलाक़ात का कोई प्रसंग नहीं मिलता। लोक में भी यह मान्यता है कि कृष्ण के वृन्दावन से जाने के बाद उनकी राधा से दुबारा कभी भेंट नहीं हो सकी थी। ब्रह्मवैवर्त पुराण, कुछ संस्कृत काव्यों और सूर साहित्य में विरह के सौ कठिन वर्षों के बाद एक बार फिर राधा और कृष्ण की एक संक्षिप्त-सी मुलाक़ात का उल्लेख अवश्य आया है। उनके जीवन की शायद अंतिम मुलाक़ात। जगह था कुरुक्षेत्र तीर्थ जहां सूर्यग्रहण के मौके पर प्राचीन काल से ही बहुत बड़ा मेला लगता रहा है। सूर्योपासना के उद्देश्य से कृष्ण रुक्मिणी के साथ सदल बल वहां पहुंचे थे। कृष्ण की तीर्थयात्रा की सूचना मिलने पर बाबा नन्द अपने कुटुंब और कृष्ण के कुछ बालसखाओं के साथ कुरुक्षेत्र आ गए। उनके साथ राधा भी अपनी सहेलियों के साथ हो ली थी। कृष्ण के बालसखाओं और राधा की सहेलियों ने कुरुक्षेत्र तीर्थ के एक शिविर में  कुछ देर दोनों की एकांत भेंट का प्रबंध किया था। बचपन के बाद सीधे बुढ़ापे की उस मुलाक़ात में क्या हुआ होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। उस मुलाक़ात के सम्बन्ध में सूरदास ने लिखा है :


राधा माधव भेंट भई 

राधा माधव, माधव राधा, कीट भृंग ह्वै जु गई 

माधव राधा के संग राचे, राधा माधव रंग रई 

माधव राधा प्रीति निरंतर रसना कहि न गई। 


सोचिए तो सौ वर्षों के अंतराल के बाद दो उत्कट प्रेमियों की उस छोटी-सी भेंट में न जाने कितने आंसू बहे होंगे। भूले बिसरी कितनी स्मृतियां जीवंत हो उठी होंगी। कितनी व्यथाएं उभरी और दब गई होंगी। कैसे-कैसे उलाहने सुने, सुनाए गए होंगे। कितना प्रेम बरसा होगा और कितना विवाद। या क्या पता कि भावातिरेक में शब्द ही साथ छोड़ गए हों ! जीवन के अंतिम पहर में दो प्रेमियों के मिलन का वह दृश्य अद्भुत तो अवश्य रहा होगा। गुप्तचरों के माध्यम से कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी को जब इन दो पुराने प्रेमियों की इस भेंट की सूचना मिली तो वे स्वयं राधा से मिलने का हठ ठान बैठी। रुक्मिणी की जिद पर राधा से उनकी मुलाक़ात भी कराई गई। उल्लेख आया है कि राधा का आतिथ्य करने के बाद रुक्मिणी ने उन्हें स्नेहवश कुछ ज्यादा ही गर्म दूध पिला दिया था। राधा तो हंसकर वह सारा दूध पी गई, लेकिन देखते-देखते कृष्ण के बदन में फफोले पड़ गए। यह प्रेम की आंतरिकता का चरम था। 


इस संक्षिप्त मिलन के बाद कृष्ण पर क्या बीती, इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। हां, इस मिलन के बाद राधा की जो अनुभूति प्रकट हुई है, वह तो किसी भी संवेदनशील मन को व्यथित कर देने के लिए पर्याप्त हैं। 'ब्रह्मवैवर्त पुराण' में कुरुक्षेत्र से लौटते समय राधा ने मन की बात साझा करते हुए अंतरंग सहेली ललिता से जो कहा, वह यह है :


प्रियः सोsयं कृष्णः सहचरि कुरूक्षेत्रमिलित 

स्तथाहं सा राधा तद्दिमुभयो संगमसुखम

तथाप्यन्तः खेलन्मधुरमुरलीपञ्चमजुषे

मनो में कालिंदीपुलिनविपिनाय स्पृहयति। 


सखि, प्रियतम कृष्ण भी वही हैं। मैं राधा भी वही हूं। कुरूक्षेत्र में आज हमारे मिलन का सुख भी वही था। तथापि इस पूरी मुलाक़ात में मैं कृष्ण की वंशी से गूंजता कालिंदी का वह जाना पहचाना तट ही तलाशती रही। यह मन तो उन्हें फिर से वृंदावन में ही देखना चाह रहा है।

ध्रुवगुप्त

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