कोरोना के उत्पात काल में पिछले दिनों ढेर सारी मुश्किलों से हम सब का वास्ता पड़ा। हिन्दी पत्रिकाओं के प्रकाशन का सिलसिला भी उसकी जद में रहा। इनदिनों छप कर आ रही पत्रिकाएं नियमित होने की प्रक्रिया में जुटी हैं। जून-जुलाई-अगस्त में प्रकाशित हो जाने वाले उनके अंक बाजार में अब पहुंच रहे हैं।
'समकालीन भारतीय साहित्य' का जून अंक मुझे पिछले महीने में मिला। उसमें मेरा आलेख भी शामिल है, एक नये शीर्षक में। यहां मैं उस आलेख की मूल प्रति आपसे साझा कर रहा हूं, प्रकाशित आलेख की आंशिक छवि के साथ :--
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कभी अचानक मिली खबरों से दिल की धड़कनें तेज हो जाती हैं। अभी-अभी दिल्ली से अनुराग का फोन आया था-‘रांची से एक अशुभ समाचार है पापा! ...गोस्वामी जी नहीं रहे।‘ फिर अशोक पागल, अरविन्द दत्ता समेत कई मित्रों केे फोन आये। बेशक, लॉक डाउन की अनिवार्य परिस्थिति ने सामाजिक संपर्कों को शिथिल किया है। लेकिन संवाद के दूरभाषी प्रबंध का आभार कि बातें कहां से कहां तक पहुंच जाती हैं। ढेर सारी नयी-पुरानी यादों के बीच सुशील अंकन की वृत्त श्रृंखला ‘अपने शहर का आदमी‘ की याद आयी जिसकी एक यादगार मिसाल बन कर चित्रित किये गये थे श्रवणकुमार गोस्वामी जी। कथाकार। नाटककार। भाषाविद। संपादक। बहुमुखी रचनाशीलता के धनी। किसी छोटे आलेख में उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की सिनौप्सिस भी नहीं बन सकती। वह यादगार दिन एक बार फिर आंखों के सामने आ गया जब अंकन जी रांची विश्वविद्यालय के केन्द्रीय पुस्तकालय सभागार में गोस्वामी जी पर केन्द्रित अपनी डिजिटल बुक ‘अपने शहर का आदमी‘ का लोकार्पण कर रहे थे। उस अवसर पर समाज-साहित्य-संस्कृति से जुड़े व्यक्तियों की जो उपस्थिति वहां दिखी थी, वह बता रही थी कि एक अजातशत्रु साहित्यकर्मी का जन अभिनन्दन इसी प्रकार होता है। आत्मीय जनों, मित्रों, शुभचिन्तकों, सहकर्मियों, सहयात्री लेखकों, शिष्यों, पाठकों, मीडियाकर्मियों की बड़ी मौजूदगी में गोस्वामी जी के जीवन वृत्त को कैमरे की आंख से देखने के लिए हम सब वहां जुटे थे। उनको बधाई देते हाथ, प्रणाम और नमस्कार निवेदित करते हाथ और गले मिलने के लिए आतुर लोगों की बेताबी देखने योग्य थी। उस शाम मैंने खुद से कहा-माना था कि अपने शहर में इतना मान-सम्मान सबको नहीं मिलता है! कथाकार रतन वर्मा की गोस्वामी जी पर केन्द्रित पुस्तक देख लीजिए। वहां ब्योरेवार बहुत कुछ मिल जायेगा।
कथाकार डॉ. श्रवणकुमार गोस्वामी वैचारिक निष्ठा के लिहाज से प्रेमचंद और राधाकृष्ण की परम्परा के लेखक थे और प्रकाशित पुस्तकों के संख्या बल की दृष्टि से उपन्यासकार द्वारका प्रसाद और नाटककार सिद्धनाथ कुमार की कतार में खड़े थे। ‘लौह कपाट के पीछे‘ जैसे यात्रावृत्त के अलावे दो कहानी संकलन, ‘चक्रव्यूह‘ जैसे सुचर्चित उपन्यास के साथ अन्य ग्यारह उपन्यास, तीन नाटक, शोध-आलोचना के चार ग्रंथ, डॉ. बुल्के स्मृति ग्रंथ‘ और मुंडारी रामचरित मानस (टीका) का संपादन। हर स्मृतिशेष लेखक की तरह पत्र-पत्रिकाओं में उनके प्रकाशित आलेखों की संख्या बड़ी है। राधाकृष्ण पुरस्कार की निर्णायक समिति के सदस्य के बतौर लगभग पच्चीस वर्षों तक उन्होंने एक ऐतिहासिक दायित्व का निर्वाह किया था। झारखंड की हिन्दी परम्परा अपने इस कलम के सपूत को हमेशा याद रखेगी।
कभी मैंने उनके उपन्यासों की शिल्पविधि पर ब्योरे में लिखा था और उसे यथेष्ट मान लिया था। आज लगता है उतने भर से उनके लंबे कार्यकाल की समुचित परिक्रमा नहीं हो पाती। उनके लेखन के कई पहलू हैं जो उन्हें बिन्दु से वृत्त का विस्तार देते हैं। वैसे उनकी मुख्य पहचान दर्जन भर उपन्यासों के रचनाकार के रूप में ही पुख्ता होती है। ‘जंगलतंत्रम‘, ‘केन्द्र और परिधियां‘ और ‘कजरी‘ जैसी उनकी कुछेक कथाकृतियां अपने लघु कलेवर के बावजूद बड़े अर्थ-संदेश देती हैं जबकि बड़े आयतन के उपन्यासों में समय और समाज के बहुुमुखी सवाल और समस्याग्रस्त यथार्थ रोचक अंदाज में शामिल हैं। उनकी शुरुआती कहानियों का संकलन है ‘जिस दीये में तेल नहीं‘ और ‘प्रतीक्षा‘ शीर्षक कहानी संग्रह में उनके कथायन में उनके अनुभवों की थाती सिमट आयी है।
साहित्य अगर जिन्दगी की रिपोर्टिंग है तो सामयिक जीवन की अनेकपक्षीय जटिलताओं को अभिव्यक्ति के किसी एक सांचे में नहीं उकेरा जा सकता। नतीजतन लेखक कई साहित्य विधाओं में अपने कथ्य को विभाजित करता है। गोस्वामी जी ने इसी तकाजे के तहत रेडियो और मंच नाटक लिखे (कल दिल्ली की बारी है, समय, सोमा), हास्य और व्यंग्य को औजार बनाया (उड़नेवाला तालाब, पति-सुधार -केन्द्र, हमारी मांगें पूरी करो), कथात्मक ब्योरे में जेल-संस्मरण लिखा (लौह कपाट के पीछे)। समग्रता में देखें तो कहना पड़गा कि श्रवणकुमार गोस्वामी ने जो कुछ लिखा, सादगी और ईमानदारी से लिखा। उनमें वैचारिक प़क्षधरता की जगह आदर्शवादी निष्ठा की खोज फलदायी हो सकती है। लेखक संगठनों, जमातों, गुटों से बाहर रह कर उन्होंने अपना कलमी सफर बनाये-बचायेे रखा है। आठ दशकों से अधिक लंबे जीवनपथ में उनको मिले मान-सम्मान से सात्विक ईर्ष्या हो सकती है।
गोस्वामी जी अपने भाषिक रुझानों के लिए भी याद किये जा सकते हैं। कभी उन्होंने देवनागरी के संवर्द्धन हेतु एक प्रस्तावना जारी की थी। झारखंड की प्रमुख संपर्क भाषा नागपुरी को उनका योगदान भी पर्याप्त चर्चायोग्य है। उन्होंने अपने शोधग्रंथ में जार्ज ग्रियर्सन की स्थापना को खंडित करते हुए नागपुरी को पूरबी हिन्दी की बोलियों में एक होने की सनद का निषेध किया और उसे एक अलग भाषा के रूप में मान्यता देने की एकेडमिक पहल की थी। इस दिशा में उनकी पुस्तक ‘नागपुरी भाषा‘ बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने प्रकाशित की थी और उनके शोध प्रबंध के दूसरे खंड का प्रकाशन ‘नागपुरी शिष्ट साहित्य‘ के रूप में हुआ। ‘नागपुरी और उसके बृहत त्रय‘ को भी क्षेत्रीय भाषा-साहित्य में महत्वपूर्ण माना गया है। उनके कई दूसरे कार्य भी निस्संदेह उल्लेख्य रहे हैं। जैसे - साहित्य अकादमी के लिए भारतीय साहित्य के निर्माता (श्रृंखला) के लिए लिखित-प्रकाशित पुस्तक ‘राधाकृष्ण‘। डॉ. बुल्के स्मृति ग्रंथ का सह- संपादन डॉ. दिनेश्वर प्रसाद के साथ। ‘रामचरित मानस‘ के मुंडारी अनुवाद का संपादन दुलाल चन्द्र मुंडा के सहयोग से। लौह कपाट के पीछे‘ और ‘रांची: तब और अब‘ जैसी विलक्षण कृतियां भी इसी कलम की उपज हैं।
रचनाभूमि के विविध पक्षj
कभी मैंने उनके उपन्यासों की शिल्पविधि पर ब्योरे में लिखा था। आज लगता है उतने भर से उनके लंबे कार्यकाल की समुचित परिक्रमा नहीं हो जाती। उनके लेखन के कई पहलू हैं जो उन्हें बिन्दु से वृत्त का विस्तार देते हैं। वैसे उनकी मुख्य पहचान दर्जन भर उपन्यासों के रचनाकार के रूप में ही पुख्ता होती है। ‘जंगलतंत्रम’, ‘केन्द्र और परिधियां’ और ‘कजरी’ जैसी उनकी कुछेक कथाकृतियां अपने लघु कलेवर के बावजूद बड़े अर्थ-संदेश देती हैं जबकि बड़े आयतन के उपन्यासों में समय और समाज के विविध रूप शामिल हैं। उनकी शुरूआती कहानियों का संकलन है ‘जिस दीये में तेल नहीं’ और ‘प्रतीक्षा’ शीर्षक कहानी संग्रह के कथायन में उनके अनुभवों की थाती सिमट आयी है।
साहित्य अगर जिन्दगी की रिपोर्टिंग है तो सामयिक जीवन की अनेक जटिलताओं को अभिव्यक्ति के किसी एक सांचे में नहीं उकेरा जा सकता। नतीजतन लेखक कई साहित्य विधाओं में अपने कथ्य को विभाजित करता है। गोस्वामी जी ने इसी तकाजे के तहत रेडियो और मंच नाटक लिखे (कल दिल्ली की बारी है, समय, सोमा) हास्य और व्यंग्य को औजार बनाया (उड़नेवाला तालाब, पति-सुधार-केन्द्र, हमारी मांगें पूरी करो), कथात्मक ब्योरे में जेल-संस्मरण लिखा (लौह कपाट के पीछे)। समग्रता मंे देखें तो कहना पड़ेगा कि श्रवणकुमार गोस्वामी ने जो कुछ लिखा, सादगी और ईमानदारी से लिखा। उनमें वैचारिक पक्षधरता की जगह आदशर्वादी निष्ठा की खोज फलदायी हो सकती है। लेखक संगठनों, जमातों, गुटों से बाहर रहकर उन्होंने अपना कलमी सफर बनाये-बचाये रखा है। आठ दशकों से अधिक लंबे जीवनपथ में उनको मिले मान-सम्मान से सात्विक ईर्ष्या हो सकती है।
मौजूदा व्यवस्था को अमानवीय तंत्र के रूप में ढालने वाले कारकों की पहचान आज हिन्दी कथा-साहित्य का केन्द्रीय कथ्य है। इसी वृत्त में समकालीन कथा-लेखन की जनपक्षीय भूिमका के प्रति सामाजिक सरोकारों से जुड़े़ प्रयोजनधर्मी रचनाकारों की राजनीतिक प्रतिबद्धताएं चाहे जो भी हो, इस बिन्दु पर कोई बहस नहीं कि भ्रष्टाचार हमारे राष्ट्रीय जीवन का अभिन्न चरित्र बन चुका है और कथा लेखन इस सामयिक संदर्भ को छुए बिना प्रासंगिक नहीं हो सकता। यही हमारे समय का जीवन संग्राम है जिसके व्यहू उद्भेदन के लिए संघर्षशील आज का अभिमन्यु छापामार षड़यत्रंकारियों के आक्रमण से घिरकर क्षत-विक्षत होने को अभिशप्त हैं। ‘चक्रव्यूह’ विश्वविद्यालय परिसर के प्रशासनिक तंत्र के ऐसे ही यथार्थ की मिडशाट में ली गयी तस्वीरों का अलबम है। फीचर फिल्म की पटकथा शैली में विश्वसनीय वस्तु-अंकन की औपन्यासिक कृति। श्रवणकुमार गोस्वामी की इस सातवीं उपन्यास-कृति को भ्रष्टाचार कथा की बजाय व्यवस्थाभंजक दुष्चक्र की कहानी कह लें तो ज्यादा सटीक होगा क्योंकि इस उपन्यास के ताने-बाने में पतनशील व्यक्तियों की यदि कोई निजी जिन्दगी है तो उसकी किसी तफसील का बयान यहां दर्ज नहीं है। जाहिर है कि इस उपन्यास में कथाकार की दिलचस्पी व्यक्तियों की सार्वजनिक गतिविधियों में ही है। इसमें विश्वविद्यालय परिसर में अपने न्यस्त स्वार्थों के वर्गीय हितों के लिए एकजुट हो गए षड़यंत्रबद्ध भष्टाचारियों की संगठित शक्ति का रोचक आकलन हुआ है। इस अर्थ में ‘चक्रव्यूह’ भ्रष्टाचार का मनोवैज्ञानिक आख्यान नहीं, अपितु कदाचार का समाजशास्त्रीय विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
सुपरिचित कथाभूमि के उपन्यासकार का एक संकट यह होता है कि कथानक में नयेपन के अभाव में रोचकता की जो कमी हो सकती है, उसे दिलचस्प किस्सागोई से भरा जाये। दूसरी तरफ लोकप्रिय होने और पाठकत्व आमंत्रित करने के मोह में चौंकानेवाले, विस्फोटक और रंगीन घटनाक्रम के अनर्गल उपयोग से भी उसकी विश्वसनीयता को खतरा हो सकता है। कहने की जरूरत नहीं कि श्रवणकुमार गोस्वामी ने इन दोनों चुनौतियों को, एक सीमा तक, कुशलतापूर्वक स्वीकार किया है और उन पर अपनी संयमित कथा-दृष्टि की मुहर लगायी है।
इस संदर्भ में उल्लेख्य है कि चक्रव्यूह अपने मिशन में विफल डॉ. शैलेश की जीवनी नहीं है, विश्वविद्यालय परिसर के सहस्रमुखी संकटों से जूझने की संकल्पशक्ति और समझ की पराजय का इतिवृत्त है। डॉ. शैलश ने पूरी व्यवस्था का कायाकल्प करने में एक ईमानदार व्यक्ति की सीमा को स्वीकार करते हुए इस्तीफा दिया है, वे अपने निजी लाभ-लोभ के लिए न झुकते हैं, न समझौते करते हैं। अपनी निष्ठाओं के लिए संघर्षशील व्यक्तियों के प्रति उपन्यासकार की यह आस्थाशाीलता न किताबी है, न काल्पनिक। उसमें किसी किस्म की स्पर्श क्रांतिकारिता का जयघोष भी नहीं है और न ही किसी आरोपित आदर्शवाद का महिमामण्डन है। यह स्थितिजन्य, विश्वसनीय और सार्थक वस्तु-बोध की एक अनिवार्य स्वीकृति है।
एक उपन्यासकार के रूप में ‘चक्रव्यूह’ से पहले के छह उपन्यासों की रचना-यात्रा में श्रवणकुमार गोस्वामी कई सवालों के घेरे में रहते आये हैं। उनके आलोचकों को उनसे शिकायत रही है कि उनका यथार्थ बोध स्थितियों के औसत सरलीकरण से उद्भूत है। परिणामतः उनके चरित्र या तो प्रतीक हैं या वर्ग चरित्र, और जहां वास्तविक चरित्र हैं भी तो वहाँ उपन्यासकार उनके बहिरंग से ही जुड़ता है, चरित्रों का अन्तरंग अनदेखा-बेपहचाना रह जाता है। साथ में एक बात यह भी कि कथा-कौशल में एकरस वर्णनात्मकता चलती रहती है। ‘चक्रव्यूह’ इन सभी सवालों का एक सटीक उत्तर है। इसमें कथाकार ने अपनी बनायी कई पूर्व रूढ़ियों को तोड़ा है और एक विस्तृत कथा-फलक पर सोद्दश्य कथात्मकता को पठनीय और स्वीकार्य भी बनाया है। वैसे, श्रवण जी की कुछेक आत्म-निर्मित रूढ़ियों और लक्ष्मण रेखाओं की चर्चा यहां अप्रासंगिक नहीं होगी जिन्हें वे इस नये उपन्यास में झटक चुके हैं, किन्तु वे उनके कथा लेखन के विकास-क्रम के सौपानिक अध्याय अवश्य हैं।
अपने कई उपन्यासों में श्रवणकुमार गोस्वामी की कथा दृष्टि आदर्शवादी भावनाशीलता से प्रेरित और परिचालित हुई है। देश की दुर्दशा और नैतिक मूल्यों के अवमूल्यन की चिन्ता उनकी दूसरी चिन्ताओं पर भारी है और यही उनकी सामाजिक सरोकार से जुडी़ रचनाशीलता को उद्वेलित भी करती है। आजादीे के बाद की कालावधि मंे राष्ट्रीय जीवन की पतनशील वास्तविकताओं और उच्चतर जीवन मूल्यों के विघटन के कारण मोह भगं की जो प्रक्रिया शुरू हुई उसके सकंट को गोस्वामी ने भी अपनी पीढी़ के अन्य नागरिकांे की तरह झेला है। इसका दस्तावेजी प्रमाण हैं उनकी औपन्यासिक कृतियां-भारत बनाम इ्रंडिया, दर्पण झूठ न बोले और राहुकेतु।
लगता है, अपसंस्कृति के प्रसार से तालमेल की असुविधा की मनःस्थिति में उनकी आदर्शवादी रचना दृष्टि नये प्रतिमानों की तलाश में लगी रही है। परिणामस्वरूप जैक फिलिप (भारत बनाम इंडिया) और तिलकराज (राहुकेतु) जैसे चरित्रों के प्रति वे सहजया सहानुभूतिशील हो उठते हैं या भारत, जनता और जमाना जैसे प्रतीक चरित्रों की सृष्टि करते हैं। एक बात और ध्यान खींचती है कि संभवतः प्रेमचंद की विरासत से प्रेरित होते हुए गोस्वामी के कई केन्द्रीय चरित्र सामान्य सुलभ मानवीय दुर्बलताओं से ऊपर दिखलाई पड़ते हैं- सिद्धांतनिष्ठ, समर्पित, आदर्शवादी, संवेदनशील और जुझारू। इस अवधारणा की स्पष्ट झलक अमर, तिलकराज, भारत, जैक फिलिप, जनता, कृष्णकान्त और चक्रव्यूह के डॉ. शैलेश में साफ देखी जा सकती है। वैसे डॉ. शैलेश उनकी सर्वाधिक संतुलित चरित्र सृष्टि है। इसे मैं गोस्वामी की जीवन दृष्टि में रोमानी यथार्थवाद से सामाजिक यथार्थवाद के विकास के रूप में मान्यता देता हूँ। यह शुभ भी है और तर्क संगत भी।
वैसे, एक खतरा अभी भी बचा रह गया कि वे अपने चरित्रों को परिवेश और परिसर बदल-बदल कर कहीं दुहराने के मोह में न बंध जायें! यह सिर्फ संयोग नहीं कि ‘राहु केतु’ में जो आख्यान उद्योग नगर स्थित राष्ट्रीय उद्योग निगम के दायरे में चित्रित किया गया है, ‘चक्रव्यूह’ में कुछ वैसा ही एक बदले हुए परिवेश में पहाड़ी प्रदेश के पहाड़ी विश्वविद्यालय में भी घटित होता दीखता है। इन दोनों उपन्यासों के कथा-तंतुओं को बारीकी से परखा जाये तो इन दोनों में एक अद्भुत साम्य दिखलाई पड़ेगा। एक कर्तव्यनिष्ठ संगठन प्रमुख की नियुक्ति, उसके मजबूत सुधारवादी कदम, उससे डरी और बौखलायी हुई भ्रष्ट नौकरशाही और जाति-क्षेत्र के आधार पर सत्तासीन राजनीति का अवांछित हस्तक्षेप, भ्रष्ट तत्वों और न्यस्त स्वार्थो का संगठित मोर्चा और उस संघर्षशील अधिकारी द्वारा आत्मसम्मानपूर्वक समयपूर्व इस्तीफा। जीवन में ऐसे नमूने चाहे जितने भी मिल जायंे, औपन्यासिक कथालेखन में यह दुहराव एक ठहर गयी रचना-दृश्टि का विभ्रम पैदा करता है।
‘चक्रव्यूह’ परिवेश केन्द्रित या परिसर उपन्यास है हालांकि इसमें चरित्रप्रधान कथानक की तकनीक इस्तेमाल की गयी है। घटना-क्रम का ताना-बाना डॉ. शैलेश के इर्द-गिर्द बुना गया है। पहाड़ी विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में उनकी नियुक्ति ने जैसे प्रशासन के ढांचे को एक नये सिरे से हरकत में ला दिया है। पूर्वकुलपति डॉ. पीटर की उग्र प्रतिक्रिया और नये कुलपति के खिलाफ वातावरण बनाने की साजिश के तहत अनेक घटना प्रसंग और कथा-मोड़ आते हैं। दायित्वों के प्रति डॉ. शैलेश की निष्ठा और सख्त कार्यशैली से निकम्मेपन की गिरफ्त में जकड़े प्रशासन तंत्र का पुर्जा-पुर्जा गतिशील होने के दबाव का अनुभव करता है। फिर न्यस्तस्वार्थों की तिकड़ी-चौकड़ी जुटने लगती है। और बाकायदा चरित्र हनन और प्रतिरोध के कई मोर्चे खुल जाते हैं। विश्वविद्यालय के अधिकारी, विभागाध्यक्ष, प्राचार्य संघ, कर्मचारी यूनियन और छात्रों की अलग-अलग मोर्चाबंदी माहौल को अराजक बनाने के अभियान मंे शरीक हैं। फिर रसद मार्ग भी अचानक बंद हो जाता है यानी सत्ता-राजनीति की छतरी में जाति के घटिया समीकरण बनने से कुलपति डॉ.शैलेश अकेले पड़ जाते हैं। इस तरह भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में एक और अभिमन्यु वीरगति को प्राप्त करता है।
इस भ्रष्टाचार कथा में भटकाव की बहुमुखी संभावनाएं थीं, कि प्रयोजनधर्मी कथा-दृष्टि भूलभुलैया की अंधेरी गलियों में भटक जाती। श्रवण जी ने भ्रष्टाचार का भजन नहीं, अपितु अंकन किया है। कुचक्री यथार्थ की इस रोचक कथा में पूर्वार्ध तक घटना क्रम के तीव्र विकास से कथा-प्रवाह वेगवान रहता है, किन्तु उत्तरार्द्ध में यह गति मंद हुई, लेकिन इतना मन्थर भी नहीं कि उपन्यास की पठनीयता मुश्किल में पड़ जाये। समग्रता में इस कथाकृति को देखा जाये तो अन्ततःमानना पड़ेगा कि चक्रव्यूह हारे को हरिनाम नहीं, इन्कलाब जिन्दाबाद है।
उनकी लगभग दो दर्जन विविध विधाओं की पुस्तकों के हजारों पन्नों से गुजर कर मैं खुद से, और आप सब से भी, पूछना चाहता हूं हिन्दी आलोचना-इतिहास ने इस बुजुर्ग लेखक (जन्म: 22 नवम्बर, 1936 ,रांची/निधन सन 11 अप्रील, 2020, रांची) को कहां जगह दी है! सभाशास्त्र के विज्ञजनों के लिए स्वागत के तोरण द्वार सहज सुलभ हो जाते हैं, लेकिन सिर्फ कलम और आत्मसम्मान के बूते जीवनपर्यन्त कलम घिसते हुए, बेहतर लिख कर भी, हाशिए में पड़े लोग किसी ‘दीदावर‘ के इन्तजार में कब तक दम तोड़ते रहेंगे ?
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