सोमवार, 15 नवंबर 2021

जयशंकर प्रसाद का महत्व?

 


15 नवंबर, 1937 की भोर बनारस के दaशाश्वमेध mhtvbघाट से लगभग आधे किलोमीटर की दूरी पर गोवर्धन सhtराय में उपयोगिता 9हलकी lठंड में भीगी सी थी. Lअभी जाड़ा पूरी तरह से आया नहीं था. पर उन दिनों गंगा में पानी की कमी न थी. गंगा की लहरों को छूकर आती हवा सिहरन पैदा करने लगी थी. जयशंकर प्रसाद ने अपने निवास प्रसाद मंदिर में अjपनी अंतिम सांस इस भोर ली. पिछले साढ़े नौ महीनों से चल रहा मृत्यु से उनका संग्राम समाप्त हुआ.


प्रसाद को गुजरे 83 साल हो चुके हैं. वे मात्र 47 साल साढ़े नौ माह जिए. उनकी मृत्यु सहसा घटी घटना नहीं थी. उन्हें टीबी हो गया था. वे रोज क्षीण हो रहे थे और रोज मृत्यु कुछ और नजदीक आ रही थी. महीनों तक वे अशक्त मृत्युशैया पर लेटे रहे, धैर्य, विश्वास के संबल के साथ. उन्हें अभी बहुत कुछ लिखना था. हिंदी की दुनिया समझती है कि वे कामायनी, चंद्रगुप्त, कंकाल के रूप में अपना श्रेष्ठ दे चुके थे. यह बिल्कुल सच नहीं है. ये कृतियां निस्संदेह बेशकीमती हैं. परंतु प्रसाद की वृहत लेखन-योजनाएं थीं. भारत के प्राचीन इतिहास पर 11 खंडों की उपन्यास श्रृंखला का इरावती के रूप में वे आरंभ भी कर चुके थे. इंद्र के मिथकीय चरित्र पर वृहत नाटक शुरू ही करने वाले थे. काव्य, कथा,

उपन्यास सभी विधाओं में उन्हें अभी विपुल लेखन करना शेष था. पर मृत्यु के पूर्व के नौ महीनों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि वे अब कुछ नहीं लिख सकेंगे. मृत्यु सुनिश्चित है. टीबी का उन दिनों कारगर इलाज नहीं था. बस उन्हें प्रतीक्षा करनी है. उन्होंने गरिमापूर्वक इस स्थिति को अंतिम दिनों में जिया. उन पर लिखे ढेरों संस्मरणों में उनसे मिलने वाले आत्मीय जनों ने वह छवि सुरक्षित रखी है.


क्या हिंदी ने प्रसाद को उनका वास्तविक दाय दिया? निश्चित रूप से नहीं. ऐसा करके हिंदी के साहित्य की सृजनशीलता ने स्वयं को स्थाई रूप से अशक्त कर लिया, उसने अपने लिए बड़ी रचनाशीलता का मार्ग बंद कर दिया. हिंदी की परंपरा, जो यदि हो सकती थी, तो वह प्रसाद-प्रेमचंद की ही परंपरा थी, न कि केवल प्रेमचंद की परंपरा. इस परंपरा को विभाजित करके सिर्फ प्रेमचंद की पंरपरा के रूप में आगे बढ़ाने का उपक्रम करना और एक नकली-झूठी मध्यमवर्गीय प्रगतिशीलता से उसे मंडित करने का दीन प्रयास करना हिंदी साहित्य के भविष्य को बहुत दूर तक के लिए क्षतिग्रस्त कर गया.


यह कैसी विडंबना है कि अभी परसों ही मुक्तिबोध की जयंती पर भावुकतापूर्ण उदगारों की बाढ़ आई हुई थी. प्रसाद निस्संदेह उनसे न सिर्फ वरिष्ठ थे, बल्कि उनका युगांतरकारी महत्व है, उन्हें ठंडे ढंग से भी याद करते शब्द दुर्लभ हैं. यह ऐसा ही है जैसे अंग्रेजी शेक्सपियर के साथ, रूसी पुश्किन के साथ, अमेरिकी वाल्ट व्हिटमैन के साथ उदासीन हो जाएं. प्रसाद हिंदी के आधुनिक साहित्य का आरंभ हैं, उसकी अस्मिता हैं, उनसे जीवंत सबंध न होने का तात्पर्य जो कुछ इस भाषा के साहित्य विकास के लिए हो सकता था, वह हुआ है.


यदि हिंदी क्षेत्र में कोई नवजागरण होता तो उसके आदिकवि जयशंकर प्रसाद होते. पर हिंदी क्षेत्र में जो हुआ वह साहित्यिक नवजागरण था. भाषा और साहित्य का नवोत्थान. व साहित्य-समाज से बाहर अपना विस्तार न कर सका. वह हिंदी खड़ी बोली साहित्य के विकास का एक गौरवशाली चरण भर बन कर रह गया. प्रसाद उसकी एक उत्तुंग लहर थे.


यह विडंबना है कि उनका काव्य जिस संपदा को अपने भीतर धारण किए हुए है, हिंदी समाज के लिए उसका कुछ अधिक मूल्य नहीं है. ऐसा नहीं कि हिंदी समाज उनको महत्वपूर्ण रचनाकार नहीं मानता, पर उसकी दृश्टि में वे महान कवि होते हुए भी उसके बहुत काम के नहीं हैं - आज भी और विगत में भी. वे उसके काम के तब होते, जब इस समाज को अपने व्यक्ति-मन के पुनर्गठन की, उसके नव-निर्माण की आवश्यकता होती. प्रसाद का साहित्य स्वत्व के रूपांतरण का साहित्य है. वह मैथिलीशरण गुप्त का राष्ट्रीय प्रबोधन या जातीय पुनरुत्थान का साहित्य नहीं है. राष्ट्रीय उदबोधन व जातीय पुनरुत्थान की भावना उसमें एक प्रबल अंतःसलिला की तरह विद्यमान अवश्य है, पर वह भी मन के रूपांतरण को ही संबोधित है - किसी स्थूल अभियान को नहीं. वह निराला की तरह आत्मस्थ साधना-गीत या सहसा व्यवस्था-विरोधी हो उठा क्षुब्ध काव्य भी नहीं है.

प्रसाद का काव्य हिंदी की काव्य-परंपरा में अपवाद था - अपने काव्य-उत्कर्ष के कारण नहीं. इस कारण कि वह जिस भाव-भूमि पर खड़ा था, वह हिंदी की सहज भाव-भूमि नहीं थी. वे व्यक्ति-चेतना के धरातल पर खड़े थे. इसी कारण वे अपने सभी पूर्ववर्तियों व समकालीनों से भिन्न थे. हालांकि पूरी छायावादी काव्य-परंपरा को व्यक्ति-चेतना का काव्य कहा गया. पर इसकी जैसी घनीभूत और प्रामाणिक अभिव्यक्ति प्रसाद के काव्य में हुई थी, वैसी किसी भी अन्य कवि में नहीं.

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