बांदा के कवि कृष्ण मुरारी पहारिया : जो कविता जीते थे , कविता पीते थे !...
मेरे फूल केन को देना ।
गंगा से मेरा क्या नाता ।।
उन दिनों यानी , 1971 से 1980 के दौर का जो बांदा मेरी चेतना में स्पष्ट रूप से दर्ज है उस समय पूरी संजीदगी के साथ हमारे दो साथी कृष्ण मुरारी पहारिया और अहसान आवारा कवि केदार की काव्य चेतना को बखूबी आगे बढ़ा रहे थे । अहसान आवारा ये लाइनें याद आ रहीं हैं --
फूल सा शादाब चेहरा
और कंटीले से नयन ।
जिस्म के कोमल खतों में
लखनऊ का बांकपन ।।
ये दोनों शौकिया नही सक्रिय काव्य सर्जक थे । आवारा साहब हमारे आसपास के सबसे सीनियर , जानकर , संवेदनशील उर्दुआना टच वाले कवि थे । इनकी कई गज़लें उन दिनों याद थी । किसी विषय पर तर्क पूर्ण विवेचना के लिए हम आप का ही सहारा लेते थे । ये हमारी संध्याकालीन मुलाकातों की रौनक थे । पोस्ट की ऑफिस की नॉकरी थी और सुकूनपरस्त जिंदगी । कवि केदार आदर्श थे । ...ये मेरी मेधा के शार्पनर थे । ....यार टिल्लन बाबू ये बताओं कि जब जमीन में खूंटा गाड़ा जाता है तो वहां की मिट्टी कहां चली जाती है ।...इसके पहले मैंने आवारा साहब को सड़क खुदे हुए एक गड्ढे को इंगित करते हुए पूछा था कि देखिए , यहां खुदा हैं , हां खुदा है ...अगर यहां , जहां खुदा है , खुदा नही है तो फिर कहां खुदा है ।... अड़े सटीक बिम्ब गढ़ते थे आवारा साहब ...उड़ते हुए जहाज को दिखाते हुए उन्होंने कहा , एखो जहाज की बत्ती कैसे लुपलुप दमदम हो रही है ।...कविता सिर्फ कागज़ पर ही नहीं लिखी जाती , अपने सोच और परिवेश में जी जाती है , पी जाती है और ओढ़ी बिछाई जाती है । ये लाइनें दुष्यन्त कुमार की हैं -
मैं जिसे ओढ़ता-बिछाता हूँ
वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आँखों में
मैं जहाँ राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल-सी गुज़रती है
मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ
हर तरफ़ ऐतराज़ होता है
मैं अगर रौशनी में आता हूँ
एक बाज़ू उखड़ गया जबसे
और ज़्यादा वज़न उठाता हूँ
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ
कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूँ सच बताता हूँ
जिस तरह से कृष्ण मुरारी पहारिया के सृजन का ताप था उसके मुताबिक इन्हें माहौल नहीं मिला । कविता कोई उत्पादक पोडक्ट तो है नहीं कि बाज़ार आप को हाथों हाथ ले और आपके आसपास का परिवेश अगर चैतन्य है तो उसकी ऊष्मा आपको ताकत देती रहती । एक और बात , अच्छा प्रतिद्वंद्वी हो तो उड़ान और ऊंची होती जाती है । पहारिया जी को ऐसा कुछ नहीं मिला , उनके आसपास कोई कलम ऐसी नहीं जो उनके जोड़ का लिख सके वे एकतरफा कविता जीते रहे ।बिना दर्पण के ही मुग्ध रहे । केदार की केन के प्रति अपनी दीवानगी है और इनकी अपनी -
भीतर कहीं हिलोरे लेता, निर्मल पानी केन का
छन्द तैरता जिसके तल पर, जैसे गुच्छा फेन का
चपल मछरियाँ मथे डालती, भीतर उठती पीर है
मंथर गति से धारा बहती, नदिया कुछ गम्भीर है
चट्टानी जबड़ों जैसे तट, और बीच में खाइयाँ
जितना विष पीती बस्ती का, नीलातीं गहराइयाँ
आभारी मैं और गीत भी, इस अनहोनी देन का
किरणें पीकर खिल-खिल करती, फिर क्रीड़ा को टेरती
कुछ ऐसी बंकिम चितवन से, यह योगी को हेरती
खिंचा चला जाता हूँ जैसे, बिन दामों का दास हो
या फिर पिंजरे के पंक्षी को, मिला खुला आकाश हो
बिना तुम्हारे कैसे सधता तप, ओ प्यारी मेनका
केन पर लिखा उनका कुछ और याद आ रहा है-
नदी रोज पूछा करती है
ऐसे क्यों चल दिए अकेले
एक वहां अनजान नगर है,
यहां भावनाओं के मेले
अच्छा नदी मुझे चलने दो
मेरा नगर भले जंगल हो
उम्र वहीं बीतेगी मेरी
जीवन भले वहां दंगल हो
पहारिया जी ने अपने मित्रों को क्या जिम्मेदारी दी थी-
चिता जहां मेरी सजती हो कवितापाठ वहीं कर लेना।
भावों को लय में तैरा कर अच्छी तरह विदा कर देना। ।
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