शुक्रवार, 19 नवंबर 2021

गगन गिल की कविता


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ज़रा धीरे चfलो, वनकन्या


ज़रा धीरे चलो, वनकन्या


बीज सो रहा है

मिट्टी में


घास चल रही है

धरती में


बर्तन लुढ़क रहे हैं

भीतर तुम्हारे आले से


जहाँ भी रखती हो पाँव

दरक रही है धरती


ज़रा धीरे चलो, वनकन्या


पछाड़ दिया है तुमने

ऋतु-चक्रों को

पुरखों को

गिद्धों को


पछाड़ दिया है तुमने

संवत्सर को

सूर्य और

स्मृति को


कब का हुआ मिट्टी

तुम्हारे हृदय का वह टुकड़ा


यहाँ रख दो उसे

ऊँची इस शिला पर


जाने दो उसे


सूर्य की ओर

वायु की ओर

रश्मि की ओर


बीत गया युग एक


धीरे-धीरे

लौटो अब

वनकन्या


 


देवता हो, चाहे मनुष्य


देवता हो, चाहे मनुष्य

देह मत रखना किसी के चरणों में


देह बड़ी ही बन्धनकारी, वनकन्या!


सुलगने देना

अपनी बत्ती

अपना दावानल


साफ होने देना खेत

जल लेने देना

पुराना घास-फूस


अपनी मज्जा

अपनी अग्नि

परीक्षा अपनी


डरना मत किसी से, वनकन्या


धीमे-धीमे बनना लौ

उठती सीधी

रीढ़ में से ऊपर


साफ

निष्कम्प

नीली लौ


अपनी देह

अपना यज्ञ

अपनी ज्वाला


फिर निकलना दूर

इस यज्ञ से भी


खड़े होना

अकेले कभी

आकाश तले


मात्र एक हृदय


नग्न और देह विहीन


निष्कलुष

पारदर्शी


आसान नहीं होगा यह

बहुत मुश्किल भी नहीं, वनकन्या

रहना बिन देह के


लौटना मत इस बार

किसी कन्दरा

किसी कुटिया में


लौटना यदि किसी दिन

तो लौटना यहीं

इस हृदय में अपने


देह बड़ी ही बन्धनकारी, वनकन्या!


इसे मत रख देना

किसी की देहरी पर


देवता हो

चाहे मनुष्य


 


तुम्हें भी तो पता होगा


मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें

निकाल कर अपना दिल


तुम्हें भी तो

पता होगा


कहाँ लगा होगा

पत्थर

कहाँ हथौड़ी


कैसे ठुकी होगी

कुंद एक कील

किसी ढँकी हुई जगह में


कैसे सिमटा होगा

रक्त

नीचे चोट के

गड्ढे में


नीला मुर्दा थक्का

बहता हुआ

ज़िंदा शरीर में


तुम्हें भी तो दिखता होगा

काँच जैसा साफ?


मैं क्यों दिखाऊँगी तुम्हें

अपना आघात?


तुम्हें भी तो

पता होगा


कितने दबाव पर

टूट जाती है टहनी

उखड़ जाता है पेड़

पिचक जाता है बर्तन


तार जब काट देता है हड्डी

फेंक देता है

उछाल कर बाज़ू

हवा में


तुम्हें भी तो

पता होगा

कितना सह सकता है मनुष्य

कितना नहीं?


कितना कर सकता है क्षमा

कितना नहीं?


कोई क्यों मांगेगा

किसी और के किये की क्षमा

भले कितना ही अंधेरा हो

पीड़ा का क्षण?


कोई क्यों हटायेगा

सामने से अपने

भेजा तुम्हारा प्याला?


क्यों नहीं लेगा कोई

तुम्हारी भी परीक्षा?

कि देख सकते हो कितना तुम?

सह सकते हो कितना?


कैसे चटकता है कपाल

भीतर ही भीतर


उठता है रन्ध्र एक

धीरे-धीरे ऊपर

किस पीड़ा में


तुम्हें भी तो

पता होगा

कुछ?


मैं क्यों कहूँगी तुमसे

अब और नहीं

सहा जाता

मेरे ईश्वर?


 


इस तरह


इस तरह शुरू होती है यात्राएं

एक पत्थर टकरा कर

आपके पाँव से

गिर जाता है नीचे

घाटी में


पल भर के लिए आप

भौंचक रह जाते हैं


रास्ते की बजाय नीचे घाटी में

दिखती है नदी

सुंदर नहीं, भयानक


आप चढ़ाई चढ़ रहे होते हैं

तोड़ देता है

हवा का दबाव

सीने का पिंजरा

निकल आता है बाहर

धक्-धक् करता दिल


आँखों के आगे

छा जाती है काली धुंध


कुछ समझ नहीं पाते आप

ऊपर जाएँ या नीचे


कि तभी

पहाड़ की चट्टान में से

झांकते हैं

नन्हे नीले फूल


उड़ जाती है एक तितली

छू कर आपकी बांह


घास उठाती है

हलके से अपना सिर


आप मुस्कराते हैं

हौले से


और देखते हैं

आप ही नहीं हैं

प्रकृति में अकेले

एकांत में मुस्काने वाले


फूल हैं

और तितलियाँ

और बच्चे

बहुत बूढ़े हो गए

समय के उस पार चले गए

कुछ लोग


सब मुस्करा रहे हैं अकेले-अकेले

ठीक इस वक्त


सब चलते हैं अकेले

रुकते हैं, मुड़ते हैं


पता ही नहीं चलता उन्हें

अकेले नहीं वे

जब तक छू न जाए उन्हें

तितली का पंख


इस तरह शुरू होती हैं यात्राएं

एक पत्थर से

दूसरे पत्थर तक

रुक-रुक कर


धीरे-धीरे पहुंचते हैं आप

चोटी तक

देखते हैं मुड़ कर


न कहीं फूल दिखाई देते हैं

न तितली


न वह पत्थर

जो एक दोपहर

आपके पैर से टकराया था

आप लुढकने वाले थे नीचे घाटी में


कैसे नादान थे आप

सोचते थे तब

गिरे तो मरे


जानते न थे

इसी तरह होती हैं यात्राएं


 


इस तरह खोलते हैं लंगर


इस तरह आप खोलते हैं लंगर

हवा में एकटक ताकते हुए

लहर को धकेलते हुए भीतर

पीड़ा ने डुबो रखा था आपको

गर्दन से पकड़ कर


एक सांस और

बस एक सांस


एक झोंका और

थोड़ी सी हवा बस


आप खोलते हैं

अपने लंगर

जैसे काटते हों कोई टांका

किसी घाव का


अब वहां सूखी गड़न है केवल

स्मृति किसी चोट की


अब सब गड़बड़ है

स्मृति भी

चोटों का हिसाब भी


कहीं जाना न था

आपको

कहीं आना न था


आप यहीं रुकना चाहते थे

सदा के लिए

गाड़ना चाहते थे

अपना खूंटा

जैसे कोई चट्टान हों आप

या कोई पत्थर


इतने भारी

इतने थिर होना चाहते थे आप

कि कोई

हिला न सके आपको

कर न सके विस्थापित


कितनी मृत्युएँ लिये अपने भीतर

घूमते रहे बेकार आप

भारी मश्क लेकर


आप खोलते हैं अपने लंगर

और कोई नहीं रोकता

आपकी राह

कोई नहीं पुकारता

किनारे से


कोई यह तक नहीं देखता

कि आप उठ गए हैं

सभा से


कि खाली होने से पहले ही

भर गयी है आपकी जगह


पानी पर लिखीं थीं

आपने इबारतें

सन्नाटे में सुनीं थीं

अपनी ही प्रार्थनाएँ


आपको पता भी नहीं चला

हवा ले गयी

धीरे-धीरे

चुरा कर आपके अंग


कि अब आप ही हैं धूल

अपनी आँखों की


छाया की तरह आप

गुज़रते हैं

इस पृथ्वी पर से

इस दिन पर से

इस क्षण पर से


काश कोई

ग्रहण ही हुए होते आप

बने होते

हवा और रश्मि के


कहीं रह जाता आपका निशान

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