काष्ठ छापा कला के लिए सुप्रसिद्ध चित्रकार पटना कला एवं शिल्प महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य श्याम शर्मा को पिछले सप्ताह पद्मश्री से सम्मानित किया गया । इधर काफी दिनों से हमारी मुलाकात भी नहीं हुई थी सुबह-सुबह उनके घर पहुंच गया। दूसरी मंजिल पर बने अपने स्टूडियो में वे बैठे देखना विषय पर काम कर रहे थे। मेरी आवाज सुन खुद ही नीचे आए और हम जाकर उसी स्टूडियो में बैठ गए। घंटों बातें हुई। शर्माजी मुझये उम्र में बड़े हैं लेकिन वर्षों पहले हुई पहली मुलाकात में उन्होंने बेतकल्लुफी से इस भेद को मिटा दिया था।
पद्म सम्मान के साथ-साथ हाल में बनाए अपने कलाचित्र उत्साह से दिखाए। बधाई दी तो कहा आप मुझे काष्ठ छापा कला कला का एक विद्यार्थी समझें तो मुझे ज्यादा खुशी होगी। इतनी विनम्रता एक सच्चे कलाकार में ही हो सकती है।
लाल हाठ वाली एक चिडि़या इधर के लगभग हर चित्र में विद्यमान थी, कारण पूछने पर कहा अरसे बाद करोना काल में चिडि़याएं मेरे घर आने लगी थी। उनमें एक ऐसी चिडि़या भी थी और वह मेरे अंतस में ऐसे पैठ गई है कि चाहे-अनचाहे उसकी आकृति उभर आ रही है। यह एक संकेत भी है कि अभी सबकुछ नष्ट नहीं हुआ है। प्रकृति वापस देने को तैयार है।
देखें तो छापा कला की शुरूआत 2500 ईसा पूर्व मिस्र में हुई थी। तब मिस्रवासी पेपरिस (एक पौधा) की पत्तियों पर वहां के निवासी चित्र उकेरा करते थे।
भारत में छापा कला की शुरूआत 18वीं शताब्दी के अंत में हुई थी। पुर्तगालियों और बाद में अंग्रेजों ने पुस्तकों में कथात्मक चित्र देने के लिए इसका उपयोग किया था। 19वीं शताब्दी में इस कला का उपयोग कलाकार अपनी भावनाओं को उकेरने में करने लगे। यहीं से यह एक कला के रुप में विकसित हुई।
शर्माजी ने इसे अपने सम्प्रेषण का माध्यम बनाया। आरंभकि दिनों में लकड़ी के एक हिस्से पर खुरच कर आकृति बनाते थे फिर रोलर से रंगों को उस ब्लॉक पर लगाकर कागज पर रूप देते। उन्हीं दिनों अर्थ एंड स्पेस नामक एक चित्र श्रृखंला बनाई जिसमें छाया और प्रकाश को साथ-साथ दिखाने की सफल कोशिश की। पहले वे कई रंगों का प्रयोग अपने चित्रों में करते थे लेकिन अब केवल एक या दो रंगों का प्रयोग अपनी कलाकृतियों में करते हैं। कहते हैं अधिक रंगों के प्रयोग से शिल्प पक्ष तो उभारा जा सकता है लेकिन विचार पक्ष को नहीं। कला की दुनिया में चित्रकला ही एक ऐसी विधा है जिसे बिना किसी अनुवाद के देखा और समझा जाता है। यहीं पर कहते हैं कि जो लोग यह कहते हैं कि अमूर्त कला समझ में नहीं आती उन्हें कुद कहते नहीं बनता, अमूर्त कला या कहें कला की किसी भी विधा को देखने और सुनने की समझ स्वयं में लगातार विकसित करनी होती है। आज इसीलिए अपने विद्यार्थियों के लिए देखना विषय पर व्याख्यान रखा है।
दोपहर होने को आ गई थी। मैंने इजाजत मांगी। उन्होंने अपनी नई किताब चलते-चलते, जिसमें उनके बनाए रेखा-चित्र और लिखे शब्द-चित्र संकलित हैं और जिसके माध्यम से उन्होंने शब्दों में छिपे चित्रों और चित्रों में छुपे शब्दों को तलाशने का प्रयास किया है, पर एक रेखाचित्र बनाकर मुझे भेट की।
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