सोमवार, 1 नवंबर 2021

टिल्लन रिछारिया की दुनियां

 बांदा के राज रंग  और ' इंद्रधनुष '


1971 का साल । ...पं जवाहर लाल नेहरू डिग्री कालेज में दाखिला हो चुका है।...धीरे धीरे शहर रू-ब-रू होने लगा है। संगी साथी बनने लगे  ।सुबह सुबह कालेज होता था ।डेढ़ दो  के बजे के बाद का समय अपने संगी साथियों के साथ बीतता । जयकांत और रामशंकर मिश्र बांदा की पहली पहचान बने । कालेज की गतिविधियों में कविताई ने आकर्षित किया । कालेज और साथियों के साथ गोष्ठियों में शामिल होने लगे ।...शाम स्टेशन रोड पर स्थानीय पत्रकार बी डी गुप्ता जी की केमिस्ट की दूकान मीटिंग प्वाइंट होता ।...शाम होते होते कवि केदार नाथ अग्रवाल और डॉ रणजीति भी आ जाते । पास ही में तीन साप्ताहिक अखबारों के दफ्तर थे , वहां के साथी भी इकट्ठा होते । विचार विनिमय , निंदा प्रशंसा ,  नोक झोंक , चुहल , शरारतें और तमाम सारे तीन तूफान । यह रोज़ की रवायत थी। अखबार और खबरों की जमात वाले , विक्रमादित्य सिंह , सुरेंद्र कुमार , तम्मना सरमदी , संतोष निगम , नागेंद्र सिंह , अश्विनी सहगल , गोपाल गोयल ,सुमन  मिश्र , सुधीर निगम आदि सक्रिय साथियों का मज़मा लगा रहता । ...ये शामें बड़ी ज्ञानवर्धक और सनसनीखेज होतीं । तमन्ना सरमदी श्रमजीवी पत्रकार यूनियन का काम देखते थे । हम सब को मेम्बर बनाये थे , सब के चंदे की राशि भी वही भरते , जब यूनियन का जलसा होता तो चाय समोसा का इंजाएम भी वही करते । चित्रकूट समाचार साप्ताहिक निकालते थे ।...दिलचस्प और मनोरंजक शामें होती थीं । अहसान आवारा शायराना मिजाज़ के थे , कृष्ण मुरारी पहारिया गंभीर और काव्य रचना के लिए प्रतिबद्ध । कविता और   पतरकारिता से जुड़े लोगों का शाम का यही ठिकाना होता । ...इस शहर का नाम महर्षि वामदेव के नाम पर है। बाँदा महर्षि वामदेव की तपोभूमि है ।स्टेशन सामने था यह जगह शहर के केंद्र में थी तो वैसे भी जाने पहचाने लोगों से मेल मुलाकात होती रहती थी । .. .कभी कभार रेलवे लाइन पार कर हम दो चार साथी डॉ चंद्रिका प्रसाद दीक्षित ' ललित ' के यहां का फेरा मार लेते । डिग्री कालेज में पढ़ाते थे , काव्य सर्जक थे , अच्छे संचालक और हम नवजवान पीढ़ी के शुभचिंतक । पांडुलिपियों की तलाश में लगे रहते ,  हमारे साथियों ने उनका नाम ही डॉ पांडुलिपि दीक्षित रख  दिया था ।...कालेज की एक गोष्ठी में ही मैंने पहली  बार कवि केदारनाथ अग्रवाल को देखा था , अध्यक्षता कर रहे थे , संचालन कर रहे थे चंद्रिका प्रसाद दीक्षित ' ललित ' । सोचा अग्रवाल समाज हैं , प्रतिष्ठित होंगे इस लिए अध्यक्ष बना दिया गया होगा । बाद में पता चला बड़े कवि हैं । फिर इनकी किताब ' फूल नहीं रंग बोलते हैं  '  कालेज की लाइब्रेरी से ले कर पढ़ी तो अंदाज़ा हुआ। ...डॉ रणजीति जी की कविता पढ़ने अंदाज़ से मैं काफी प्रभावित था तो उनकी किताब  '  ये सपने ये प्रेत ' लायब्रेरी से ले कर पढ़ी । कई दिनों के प्रयास से उनके जैसी कविताओं की नकल कर , एक लाइन छोटी फिर एक लाइन बड़ी , जैसी कविता दिखती गई अपने शब्द भरता गया । ...और एक दिन साहस कर अपनी कॉपी में लिखी 20-25 कविताएं डॉ रणजीति को दे आया । तीन दिन बाद वे मिले बोले ,  बढ़िया लिखा हैं आपने , आप भवानी भाई और भारती जी को पढ़िए । भारती से मैं धर्मयुग वाले धर्मवीर भारती जी को तो समझ गया पर कौन भवानी भाई न समझ पाया । बाद में पता चला कि ये तो अपने परिवार के ही हैं , दिल्ली में रहते हैं , गीत फ़रोस इनकी चर्चित कविता है । भवानी प्रसाद मिश्र रिछारिया परिवार में ही ब्याहे हैं । इनकी पहली कृति जो मेरे हाथ लगी वह थी बनी हुई रस्सी ।...बाद में डॉ रणजीति की   कवितासों से खासा प्रभावित रहब। कालेज में कविता प्रतियोगिता का आयोजान हुआ मैंने भी हिस्सा लिया । तीसरे स्थान पर रहा । राज वल्लभ त्रिपाठी पहले और मोजेश माइकल दूसरे पायदान पर रहे । दूसरे साल भी ऐसा ही रहा । पिछली बार तो मैंने डॉ रणजीति जी से पूछ कर कविता पढ़ी थी कि कौन सी पढूं । लेकिन इस बार अपने आप तै कर के पढ़ दी । परिणाम पिछले साल वाला ही रहा ।  इस बार कहानी में भी  पुरष्कृत हो गया । कहानी थी  ' माइनर लव '  । घोषणा के समय तीसरे पुरस्कार के लिए कहानी का शीर्षक तो मेरी कहानी का पढ़ा गया लेकिन नाम किसी और का । फिर जिसका नाम आया वो तीसरे स्थान पर रहे ,मुझे सांत्वना पुरस्कार मिला । उस समय के हमारे साथी अच्छी कविताएं लिखते थे मैं तो देखा देखा  वाला  कवि नहीं , कविता लेखक था।...मेरी कविता के लिए पुरस्कार स्वरूप गुजराती कवि उमाशंकर जोशी की कविताओं की किताब ' निशीथ ' मिली थी । ...सन 10973 में बांदा में प्रगतिशील सम्मेलन हुआ । देश के हर अंचल से लेखकों का आना हुआ । ...हमारे साथियों एक वर्ग वाम रस में डूबा हुआ था । इनके वाद संवाद का आलम यह था कि अगर ये लोग बैठने की सुकूनपरस्त जगह और चाय की गरमाहट पा जाते तो चार चार  घंटे डटे रहते । कभी अगर मैं इनकी रात्रिकालीन चर्चाओं में शामिल होता तो कुछ देर बाद झपकी मारने लगता , उनींदे में जो  सुनाई पड़ता वो सिर्फ इतना  ही समझ आता ...बाबू जी , लेनिन , गोर्की / गोर्की , लेनिन ,बाबू जी । बाबू जी का यहां मतलब बाबू केदारनाथ अग्रवाल से है । ....इन गोष्ठियों में मुखर होते रामशंकर मिश्र, जतकान्त शर्मा ,  गोपाल गोयल , कृष्ण मुरारी पहारिया , अहसान आवारा ।...ऐसे ही खबरों से जूझते पत्रकारों की महफिलें होतीं , जिनमें बी ड़ी गुप्त ,  संतोष निगम , नागेंद्र सिंह , सुधीर निगम , संतोष स्वामी , विक्रमादित्य सिंह , अश्वनी सहगल मुखर होते , देश दुनिया के ताजे हालात  पर चर्चा होती ।ये चर्चाएं  आमतौर पर चाय पान की दुकानों , रेलवे स्टेशन , सड़क के किनारे , कहीं भी खड़े खड़े छिड़ जातीं । खबरों की प्रामाणिकता के लिए बी डी गुप्ता और अश्वनी सहगल की तलाश होती । कुछ अलहदा चरित्र भी हैं , रामेश्वर गुप्त , सत्तीदीन गुप्त , हरि गुप्त , राजेन्द्र तिवारी सूरज तिवारी ...ये लोग यदाकदा वाले थे । मैं इन सब जिला स्तर वालों के बीच तहसील स्तर कर्वी का था । बांदा-कर्वी के बीच शटल करता था । । ग्रेजुएशन करने के बाद से 1980 में बम्बई जाने तक कर्वी में कुछ समय के लिए मास्टरी के अलावा मैं अपने बांदा के साथियों के कंधों पर सवार रहा ।...वाकई कंधों पर सवार रहा । बांदा पहुंचता तो रामशंकर मिश्र का साथ और खाने सोने के लिए जयकांत का घर , सन्तोष निगम बराबर मेरी खोज खबर रखते । दिन का ज्यादातर समय मध्ययुग में गुजराता , खबरें बनते देखना , मौका पाकर खुद भी लिखने का प्रयास करना । यहां हफ्ते में एक दिन बबेरू से गुप्त जी इसके नामजद संपादक आते थे , यह दिन चाय समोसों भर बार होता । बाद के दिनों में तीन नवेले पत्रकार उभरने लगे , अरुण खरे , मुकंद गुप्ता और राजू मिश्र । राजू मिश्र की हैंडराइटिंग काफी खूबसूरत थी , खबरों की समझ अच्छी थी पर था शरारती । ये बड़ी तेजी से निखार रहे थे , अरुण खरे डेस्क ओर और मुकुंद की की रुचि क्राइम संबंधी खबरों में बनने लगी फिर ये सत्यकाथाओं की ओर मुड़ने लगा । ...बांदा के कवियों की नई उभरती जमात में राज बल्लभ त्रिपाठी , मोजेश माइकल , रामशंकर मिश्र , मदन सिंह , राम आसरे गुप्त , जयकांत शर्मा , गोपाल गोयल , अनिल शर्मा , आनंद सिन्हा , विकलेश्वर आदि रहे । कृष्ण मुरारी पहारिया ,  अजित पुष्कल और अहसान आवारा इन सबसे ऊपरी पांत में हैं ।...एक दिन देखा कि हमारे प्रिय आत्मन राम आसरे गुप्त बैंक से नोट गिनते सीढियां उतरते चले आ रहे है । .. और गुपता जी क्या हाल है ।...रिक्सा वाले को रोक कर कहा , चलो बैठो ,  बताना क्या , दिखाता हूँ अपने हाल ।...एक आहाते के अंदर  पहुंच कर रिक्सा रुकवाया , सामने बाड़ा सा बोर्ड लगा था , लिखा था " बुंदेलखंड प्रिन्टरर्स " ...मैंने कहा , वाह गुप्ता जी बधाई । ...बधाई से काम नहीं चलेगा , यहां काम करना पड़ेगा । बढ़िया खानपान हुआ । अच्छा बाड़ा प्रेस था । आगे बारचीत का सिलसीला चला , मैंने पूछा कि 40-50 पेज की एक पत्रिका निकाली जाए तो कितना खर्च आएगा । वो खामोश रहे । मैंने फिर पूछा तो बोला , पैसे हैं तुम्हारे पास । ...इंतजाम करेंगे । ...क्या इंतजाम करोगे , मैटर की व्यवस्था करो छप जाएगी । ...इस बीच आना जाना बना रहा , एक दिन गुप्ता जी ने कहा , कहां इधर उधर घूमते रहते ही यहीं बैठा करो , मुझे सहयोग दो , ये देखो ये स्कूल के छमाही इम्तिहान के पेपर छपने आये हैं , इनका प्रूफ पढ़ दो छपना  है  । इसी से तो कागज़ स्याही बचा कर तुम्हारी पत्रिका छापूंगा । ...ठीक है ।...मैने गुप्ता जी की बात को जिम्मेदारी से लिया । वे मेरा खूब ख्याल रखते । उनके खाने का टिफिन घर से आता , शुद्ध देसी घी का भोजन होता । वे टफीन मुझे खिला देते और खुद शाम 4 बजे बाहर सब्जी पूरी मांगा कर खाते । इसी बीच गुप्ता जी इलाहाबाद के भारत अखबार की रिपोर्टरी ले आये । .. यार गुरू देखो तुम्हारे लिए क्या धांसू काम लाया हूँ । भेजो खबर । उन्हीं दिनों डी ए वी कालेज का सालाना जलसा चल रहा था , भेजी गई खबरें छपने लगीं  , गुप्ता जी परम प्रसन्न । अब गुप्ता जी ने उकसाया , यार कल्चरल खबरें तो तुम बढ़िया लिख लेते हो पर अब मामला क्राइम न्यूज़ का है । क्राइम स्टोरी भी बढ़िया छपी । अब गुप्ता जी भूल भी गए कि वो भारत अखबार के रिपोर्टर भी हैं । मैने पत्रिका के लिए मैटर इकट्ठा किया , मैटर कंपोज हुआ , पत्रिका  ' इंद्रधनुष '  छप भी गई । ये गुप्ता जी की दयानतदारी और मेरे प्रति उनके निश्छल प्रेम का बड़ा उपहार था ।  मेरे बिना एक नए पैसे खर्च के पत्रिका हाथ में थी । सब गुप्ता जी मेहरबानी से हुआ ।...इस प्रत्रिका में धर्मयुग , कादम्बनी ,  सारिका , साप्ताहिक हिंदुस्तान में छपने वाले  लेखकों अलावा कोई अन्य नहें था । नवोदित कवि के खाते में आनंद सिन्हा थे । बल्लभ डोभाल, रमेश बतरा की कहानी , डॉ रणजीति का प्रगतिशील  आंदोलन और लेख , सावित्री परमार के गीत और कवि केदारनाथ अग्रवाल जी की हस्तलिखित कविता के अलावा उच्चकोटि की सामग्री थी । ...उन दिनों धर्मयुग ने महादेवी जी हस्तलिखित कविता प्रकाशित की थी । तो हमने भी केदार बाबू की हस्तलिखित कविता छपी । हम धर्मयुग जितने साधन संपन्न थे नहीं ब्लॉक बनवा कर छपत्र तो यमन केदार बाबू से कविता स्टेंसिल पेपर पर लिखवाई और साइक्लोस्टाइल कर पत्रिका के बीचोवीच वह पेज लगा दिए । मामला जम गया ।...यह 1975 का साल हैं  । पत्रिका खूब सराही गई । ...,यह पत्रिका मैंने भवानी प्रसाद मिश्र ,  धर्मवीर भारती और कामलेध्वर जी को डाक से भेजी और आग्रह किया कि इसका पत्राचार विमोचन कर दें । भवानी प्रसाद मिश्र जी का जवाब आया , लिखा कि पत्रिका बहुत उच्चकोटि की है । आगे इसका स्तर कैसे बनाये रखोगे । इसका खर्च आदि कैसे जुटाओगे , हम यहां '  गांधी मार्ग '  निकालते हैं , बड़ी मुश्किल होती है । भारती जी ने बधाई दी और लिखा  कि ये पत्राचार विमोचन क्या है । ...बाँदा के अखबारों ने खूब प्रशंसा की ।...धन्यभाग्य ।

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