सोमवार, 1 नवंबर 2021

कवि केदार का बांदा /:टिल्लन रिछारिया

 

 सदी के सातवें दशक के शुरूआती सं 72 - 73  के बाद के साल ...चारो ओर धूम थी कवि केदार की !...कवि केदार कितने बड़े कवि थे ...ये तब हमलोग नहीं जानते समझते  थे ...हाँ इतना जरूर समझते थे कि जब इनसे इतने बड़े - बड़े कवि साहित्यकार लोग मिलने आते हैं तो ये भी उतने बड़े तो होंगे ही ।...बाबा नागार्जुन , हरिवंश रॉय बच्चन , अमृत रॉय ...


बांदा में कवि केदार की अगुआई में तब ' प्रगतिशील सम्मलेन ' हो चुका था ...देश भर के तमाम साहित्य प्रेमी बांदा की मिट्टी के आतिथ्य का स्वाद ले चुके थे । केदार बाबू के साथ डॉ रणजीत अपने तीखे तेवर के साथ वातावरण में ओज भर रहे थे . ... डॉ चंद्रिका प्रसाद का कविताई का अपना अंदाज़ ही निराला था .  कृष्ण मुरारी पहारिया  और  अहसान आवारा अपनी कविता से अधिक हम जैसे नए लोगों की कविताओं को सवांरने में अधिक रूचि लेते थे . कितने नाम ...मोजेस माइकल , रामशंकर मिश्र , राम आसरे  , जयकांत , गोपाल गोयल , आनंद सिन्हा , अनिल शर्मा ...!

हम लोग केदार बाबू के साथ बड़े सहज होते थे ...कोई भी , कैसी भी बात उनसे पूंछ लेते ....शाम स्टेशन रोड पर बीडी गुप्ता जी की केमिस्ट की दूकान पर वे रोज़ मिलते !...लिहाज़ तो भरपूर  होता पर अंदाज़ बे-तकल्लुफ होता ....वे अक्सर कहते ..." अरे यार मौलिक - वौलिक कुछ नहीं होता ... कवि-कलाकार सब यहीं समाज और प्रकृति  से बात उठाता है और काव्य में प्रस्तुत कर देता है ...जो जितनी सहजता से यह काम कर लेता है वह रचनाकार उतना व्यापक होता है . विचारधारा रचनाकार की दृष्टि होती ....सब आसपास है ...' चंद्रगहना से लौटती बेर ' का  चंद्रगहना कहाँ है ?...तुम कर्वी से बस के रास्ते जब बांदा आते हो तो पयस्वनी पार करते ही दाहिने हाथ पत्थर का तीर देखते हो ...लिखा है ... '  चंद्रगहना ' पुरवा है...वहीं का वृतांत है हमारी इस  कविता में ...


देखाआया चंद्र गहना।

देखता हूँ दृश्‍य अब मैं

मेड़ पर इस खेत पर मैं 

बैठा अकेला।

एक बीते के बराबर

यह हरा ठिगना चना,

बाँधे मुरैठा शीश पर 

छोटे गुलाबी फूल का,

सज कर खड़ा है।

पास ही मिल कर उगी है

बीच में अलसी हठीली

देह की पतली, 

कमर की है लचीली,

नीले फूले फूल को 

सिर पर चढ़ा कर

कह रही है, 

जो छूए यह,

दूँ हृदय का दान उसको।

और सरसों की न पूछो-

हो गई सबसे सयानी,

हाथ पीले कर लिए हैं

ब्‍याह-मंडप में पधारी

फाग गाता मास 

फागुनआ गया है 

आज जैसे।

देखता हूँ मैं: स्‍वयंवर हो रहा है,

पकृति का अनुराग-अंचल हिल रहा है

इस विजन में,दूर व्‍यापारिक नगर से

प्रेम की प्रिय भूमि उपजाऊ अधिक है।

और पैरों के तले हैं एक पोखर,

उठ रही है इसमें लहरियाँ,

नील तल में जो उगी है

 घास भूरी ले रही 

वह भी लहरियाँ।

एक चाँदी का बड़ा-सा 

गोल खंभाआँख को है चकमकाता।

हैं कईं पत्‍थर किनारे

पी रहे चुपचाप पानी,

प्‍यास जाने कब बुझेगी!

चुप खड़ा बगुला 

डुबाए टाँग जल में,

देखते ही मीन चंचल

ध्‍यान-निद्रा त्‍यागता है,

चट दबाकर चोंच में

नीचे गले के डालता है!

एक काले माथ वाली 

चतुर चिडि़या

श्‍वेत पंखों के झपाटे मार 

फौरन टूट पड़ती है 

भरे जल के हृदय पर,

एक उजली चटुल मछली

चोंच पीली में दबा कर

दूर उड़ती है गगन में!

औ' यही से-भूमी ऊँची है 

जहाँ से-रेल की पटरी गई है।

चित्रकूट की अनगढ़ 

चौड़ीकम ऊँची-ऊँची पहाडि़याँ

दूर दिशाओं तक फैली हैं।

बाँझ भूमि पर

इधर-उधर रिंवा के पेड़

काँटेदार कुरूप खड़े हैं

सुन पड़ता है मीठा-मीठा 

रस टपकतासुग्‍गे का स्‍वर

टें टें टें टें;सुन पड़ता है

वनस्‍थली का हृदय चीरता

उठता-गिरता,सारस का 

स्‍वर टिरटों टिरटों;

मन होता है-उड़ जाऊँ मैं

पर फैलाए सारस के संग

जहाँ जुगुल जोड़ी रहती है

हरे खेत मेंसच्‍ची प्रेम-कहानी

 सुन लूँ चुप्‍पे-चुप्‍पे।


कविता का एक नया तेवर अवतार ले चुका था ....कवि केदार के ओजस्वी व्यक्तित्व का असर समाज की सभी इकाइयों पर पडा । ...पत्रकारिता पर भी भरपूर असर पडा । कसबे के ...मध्ययुग , बम्बार्ड , विश्व प्रभाकर, चित्रकूट समाचार    ...जैसे अखबारों में अक्स दिखने लगा ...और विकसित होने लगी पत्रकारिता में नयी पौध ...जन-चेतना की धार ...इसी धार और रफ़्तार से हम जैसे तमाम निकले ....! 


राजूमिश्र ,मुकुंद  ,अरुण खरे ...अपने आप में एक मिसाल हैं ...बांदा  की पत्रकारिता के निखार और विस्तार का   !  ...राजू मिश्र बांदा की इसी दौर की उपज हैं । ...बहुत घिसे गए ...बहुत रगड़े गए...बहुत तराशे गए ...जेब में छदाम नहीं लेकिन रुका कोई काम नहीं ...!    


जनता पार्टी की सरकार आई ... 77 - 78 का दौर था . बुंदेलखंड भयंकर  सूखे के दौर से गुज़र रहा था...बांदा जिला भी इससे अछूता नहीं था . इसी दौरान चित्रकूट में एन यू जे की ओर से  पत्रकार सम्मेलन आयोजित हुआ .इससे भी यहाँ की पत्रकारीय चेतना को काफी निखार मिला . बांदा के जमुना बोस ग्रामीण विकास मंत्री थे ... पर वो थे तो पुराने पत्रकार ही . बोस जी लम्बे समय तक पी टी आई के लिए काम करते रहें हैं ....यूं तो चित्रकूट  में सन  70 - 71  से डॉ. राम मनोहर लोहिया द्वारा संकल्पित ' रामायण मेला ' आयोजित हो रहा था ...पर जनता पार्टी के दौर में इसमें और रौनक आगई . इस मेले की खूबी यह है कि यह अभी तक ...धार्मिक और राजनीतिक प्रदूषण से मुक्त है ....उस दौर के तमाम राजनीतिज्ञ साहित्यकार और कलाकार इस मेले में आते रहे . यह सब इस अंचल की पत्रकारिता के विकास के लिए ऊर्जा का काम करता रहा ...जैसे बांदा में केदार बाबू नयी पीढी को प्रगतिशील विचारों से  तराश रहे थे वैसे ही रामायण मेला के संयोजक बाबूलाल गर्ग अपनी सांस्कृतिक दृष्टि से नई पीढी को समृध्द कर रहे थे। 


यह दौर ' रविवार '...' दिनमान  ' ...' धर्मयुग ' जैसी पत्रिकाओं का उत्कर्ष काल था । ...जागरण,आज,भारत और बाद के दौर का...अमृत प्रभात इलाके के प्रभावी अखबार थे । ...कवि गोष्ठी वाले हमलोग पत्रकारों के लिए दोयम दर्जे के लोग हुआ करते थे ...टाइम्स ऑफ़ इंडिया के ...बी डी गुप्ता की तूती बोलती थी । ...ए के सहगल और रामेश्वर गुप्ता का एक धडा था ....हम लोग संतोष दादा गैंग के थे...हर जगह पिले रहते थे ...बम्बार्ड के विक्रमादित्य का खासा रुतबा था ....बड़ा चक्रव्यूह था ...लेकिन इसमें कोई अभिमन्यु कभी मारा नहीं  गया ...क्योंकि यहाँ की महाभारत के भीष्म और कृष्ण की मुखर भूमिका में  कवि केदार हमेशा तत्पर रहे .

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