शनिवार, 20 नवंबर 2021

प्रेम / ओशो

 मेरे देखे मनोविज्ञान यही है कि धनी आदमी में प्रेम नहीं होता। असल में धन को कमाने में उसको अपने प्रेम को बिलकुल नष्ट कर देना होता है।


प्रेमी धन कमा नहीं सकता। कमा भी ले, तो बचा नहीं सकता। एक तो कमाना मुश्किल होगा प्रेमी को, क्योंकि उसे हजार करुणाएं आएंगी। वह किसी की छाती में छुरा नहीं भोंक सकेगा। और किसी की जेब भी नहीं काट सकेगा। किसी से ज्यादा भी नहीं ले सकेगा। डांडी भी नहीं मार सकेगा। धोखा भी नहीं कर सकेगा। जालसाजी भी नहीं कर सकेगा। जिसके हृदय में प्रेम है, वह ज्यादा से ज्यादा अपनी रोटी—रोजी कमा ले, बस, बहुत। उतना भी हो जाए तो बहुत!


धन इकट्ठा करने के लिए तो हिंसा होनी चाहिए। धन इकट्ठा करने के लिए तो कठोरता होनी चाहिए। धन इकट्ठा करने के लिए तो छाती में हृदय नहीं, पत्थर होना चाहिए, तभी धन इकट्ठा होता है।


तो धन प्रेम की हत्या पर इकट्ठा होता है। और जिसके प्रेम की हत्या हो जाती है, वह बांझ हो जाता है। वह सब अर्थों में बांझ हो जाता है। उसके जीवन में फूल लगते ही नहीं। संतति तो फूल है। जैसे वृक्ष में फूल लगते, फल लगते। लेकिन अगर वृक्ष में रसधार बहनी बंद हो जाए, तो फिर फूल भी नहीं लगेंगे, फल भी नहीं लगेंगे। संतति तो फल और फूल हैं तुम्हारे जीवन में। तुम्हारे प्रेम की धारा बहती रहे, तो ही लग सकते हैं।


इसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक कारण है। जितना ज्यादा धनी, उतना ही प्रेम में दीन हो जाता है। अक्सर तुम गरीबों को प्रेम से भर हुआ पाओगे, अमीरों को प्रेम से रिक्त पाओगे। यह आकस्मिक नहीं है। बात उलटी है।

तुम सोचते हो. गरीब आदमी प्रेमी है। असल बात यह है कि प्रेमी आदमी गरीब रह जाता है। बात उलटी है। तुम सोचते हो अमीरों में प्रेम क्यों नहीं? तुम समझे ही नहीं। प्रेम ही होता, तो वे अमीर कैसे होते! अमीर होना कठिन हो जाता। प्रेम को तो मारकर चलना पडा। प्रेम को तो काट देना पड़ा। प्रेम को तो गड़ा देना पडा जमीन में। जिस दिन उन्होंने अमीर होना चाहा, जिस दिन अमीर होने की आकांक्षा जगी, उसी दिन प्रेम की हत्या हो गयी। प्रेम की लाश पर ही अमीरी के महल खड़े हो सकते हैं, नहीं तो नहीं खड़े हो सकते। प्रेम से कीमत चुकानी पड़ती है।


और प्रेम तुम्हारी आत्मा की सुगंध है। आत्मा की सुगंध खो जाती है और तुम्हारी देह धन से घिर जाती है। तुम्हारे पास जड़ वस्तुएं इकट्ठी हो जाती हैं, और तुम्हारा जीवन—स्रोत सूखता चला जाता है।


इसलिए अमीर से ज्यादा गरीब आदमी तुम न पाओगे। उसकी गरीबी भीतरी है। उसके भीतर सब सूख गया। उसके भीतर कोई रस नहीं बहता अब। उसका जीवन बिलकुल मरुस्थल जैसा है। वहां कोई हरियाली नहीं है। कोई पक्षी गीत नहीं गाते। कोई मोर नहीं नाचते। कोई बांसुरी नहीं बजती। कोई रास नहीं होता। सूख गयी इस जीवन चेतना में ही संतति के फल लगने कठिन हो जाते हैं।


ओशो

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