मंगलवार, 16 नवंबर 2021

महाभोज : सत्तातंत्र में हाशिये पर समाज / वीरेंद्र यादव

 #साहित्य  

आज जब मन्नू   भंडारी  जी  नही रहीं ,उनकी स्मृति में सादर नमन  करते हुए प्रस्तुत है  श्रद्धांजलि स्वरूप 'महाभोज' पर अभी पिछ्ले  दिनों ही  लिखा  गया यह  लेख.


'महाभोज’-सत्तातंत्र के दुश्चक्र में हाशिये का समाज 

(वीरेंद्र यादव)

 

बीती सदी के उत्तर्रार्ध (1979) में जब मन्नू भंडारी का उपन्यास ‘महाभोज’ प्रकाशित हुआ था ,तब न हिन्दी साहित्य में  दलित विमर्श की गहमागहमी थी  और न ही उत्तर भारत में दलित राजनीति की केन्द्रीयता. तब तक दलितों के प्रेरणास्रोत के रूप में आम्बेडकर का  आज सरीखा सर्वस्वीकार का भाव भी नहीं था. यह अकारण नहीं है कि ‘महाभोज’ के औपन्यासिक कथ्य  में दलित शोषण का वृतांत होने के बावजूद गांधी ,नेहरू का उल्लेख तो है लेकिन आम्बेडकर अनुपस्थित हैं . दरअसल  ‘महाभोज’ लिखे जाने की प्रेरणा के मूल में मुख्य धारा की  वर्चस्वशाली राजनीति और  सत्तातंत्र  की पतनगाथा मुख्य कारक  थी. उपन्यास में दलित इस राजनीति की उपभोग सामग्री के रूप में उपस्थित हैं. यह सचमुच विचारणीय है कि सत्तातंत्र द्वारा  दलित उभार और दलित चेतना के दमन का जो आख्यान ‘महाभोज’ में तब रचा गया था ,उसके आगे की मुक्कम्मल गाथा हिन्दी की मुख्यधारा के  उपन्यास में अभी भी क्यों प्रतीक्षित है? यह सच है कि ‘महाभोज’ में  दलित समाज का आतंरिक चित्रण और उससे उपजे सामाजिक संबंधों का विवेचन संपूर्णता में उस तरह नहीं है जिस तरह  जगदीश चन्द्र के उपन्यास ‘धरती धन न अपना’ में है. लेकिन दलितों को चुनावी राजनीति तक सीमित किये जाने और दलित प्रतिरोध के दमन के जिस दुष्चक्र का बेबाक खुलासा मन्नू भंडारी ने इस उपन्यास में किया है ,वह आज पहले से   अधिक ज्वलंत और प्रासंगिक है जितना चार दशक पूर्व था. विशेष अर्थों में इसे वर्तमान राजनीति की  विकृत्ततम परिणतियों  का  पूर्वाभास भी कहा जा सकता है.

    

‘महाभोज’ लिखने की प्रेरणा के मूल में आपातकाल के बाद सत्ता परिवर्तन  के दौर में 1977 में बिहार के बेलछी गाँव का वह सामूहिक दलित हत्याकांड था जिसने इंदिरा गांधी की वापसी और राजनीतिक  पुनर्जीवन का द्वार खोला था.  उपन्यास का कथावृतांत जिस दलित युवक बिसू (बिशेसर) की हत्या के इर्द गिर्द रचा गया है ,वह उपन्यास के सरोहा गाँव के  दलितों के सामूहिक हत्याकांड से ही विचलित और आंदोलित है. वह इस जघन्य हत्याकांड के अपराधियों की पहचान कर उन्हें  दण्डित करवाने के लिए संकल्पबद्ध है. उपन्यास में अन्याय के विरुद्ध बिसू की प्रतिरोधी चेतना को जिस तरह राजनीतिक दुरभिसंधि के चलते नक्सलवादी  राजनीति से जोड़कर राजनीतिक मंतव्य देने  का प्रयास किया गया है वह वर्तमान  परिदृश्य का भी प्रतिनिधि यथार्थ है. दलित युवा बिसू की हत्या गाँव के दबंग जोरावर द्वारा इसलिए करा दी जाती है क्योंकि उसने उस  सामूहिक दलित हत्याकांड के सुराग जुटा लिए थे जिसमें जोरावर शामिल था . और यह भी कि सरोहा गाँव ऐसा जहाँ ‘लोगों के घर ,जमीन और गाय-बैल ही रेहन नहीं रखे हुए हैं जोरावर और सरपंच के यहाँ ,उनकी आवाज़ और जबान तक बंधक रखी हुई है.’ सरोहा का  यही दबंग जोरावर प्रान्त के मुख्यमंत्री दा साहब का मुंहलगा और सहायक है. मध्यवर्ती किसान जाति का यह दबंग जब दा साहब की इच्छा के विरुद्ध उपचुनाव में अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा के चलते खुद ही उम्मीदवार बनना चाहता है तब दा साहब जो शतरंजी बिसात बिछाते हैं उसके कई शिकार होते हैं. मन्नू भंडारी ने इस दुष्चक्र में शामिल राजनेताओं, सरकारी अमले और मीडिया की दुरभिसंधि को जिस रचनात्मक दक्षता के साथ उजागर किया है वह  सत्ता के षड्यंत्र स्वरुप  को बेपर्दा करता है.  उपन्यास में बिसू की प्रतिरोधी चेतना को नक्सलवाद से जोड़कर उसकी हत्या को पहले आत्महत्या का रंग देने का षड्यंत्र फिर उसके मित्र बिन्दा को ही हत्या आरोपी बनाकर गिरफ्तार किया जाना मात्र एक घटना न होकर ,एक ऐसी सामाजिक परिघटना है जो समसामयिक यथार्थ से पूरी तरह संपृक्त है. बेलछी से शुरू होकर दलित हत्याकांडों का जो सिलसिला लक्ष्मनपुर-बाथे और बथानीटोला  की परिणतियों के रूप में सामने है उससे कई नए ‘महाभोज’ लिखे जाने की जरूरत दरपेश है . यद्यपि यह सच है कि आज दलित जीवन के परिप्रेक्ष्य में उत्तर-भारत की राजनीतिक परिस्थितियां वही नहीं हैं ,जो ‘महाभोज’ के समय समाज में  थीं.  सत्ता का समीकरण बदला है ,दलितों की प्रभावी उपस्थिति राजनीति और समाज में दर्ज़ हुई है.उपन्यास के दा साहब और शुकुल जी अब उंगली से कठपुतली नचाने के बजाय ‘सोसल इंजिनीयरिंग’ के लिए भले ही विवश हुए हों ,लेकिन सत्ता तंत्र की उच्च सवर्ण सरचना के चलते बिसू और बिन्दा की नियति अभी भी वैसी ही  है जैसी  ‘महाभोज’ में थी. दलित बिसू की हत्या और गाँव में विधानसभा उपचुनाव की राजनीति के ताने-बाने में अंतर्गुम्फित ‘महाभोज’ का कथ्य वर्तमान राजनीति के सादृश्य उपस्थित करता है. उदहारण के लिए चुनाव की पूर्व तैय्यारी के दौर में घाघ राजनीतिज्ञ और प्रान्त के मुख्यमंत्री  दा साहब का यह कथन कि “  किराये की रैलियां और प्रदर्शन तो सुकुल बाबू ने पिछले चुनाव में बहुत करवाए हे,उन सबसे हुआ क्या ?  हम तो अपने कार्यक्रमों को पूरी निष्ठा और मुस्तैदी से चलायेंगें.मात्र चुनाव जीतना नहीं ,इस वर्ग की स्थिति सुधारना हमारा लक्ष्य है. घरेलू –उद्योग –योजना की पहली किश्त पहुँच गयी लोगों के पास ? जिनके पास नहीं पहुँची है पहुंचा दो.”

    

दरअसल हाशिये के समाज के बरक्स सत्तातंत्र की दो टूक पड़ताल मन्नू भंडारी ने जिस ठन्डे सृजनात्मक मुहावरे में की है ,उससे वर्तमान राजनीति की प्रवृत्तिमूलक पहचान बखूबी की जा सकती है. उच्च आदर्श, सिद्धांत और लोकलुभावन  मुहावरे के खोल में सत्ता की कुर्सी का खेल , नित नए पाखण्ड , षड्यंत्र का घटाटोप और  जनतंत्र को वर्चस्वशाली वर्गों के  हितसाधन में तब्दील किये जाने का खुलासा उपन्यास में बखूबी हुआ है.  उपन्यास में ‘मशाल’ अखबार और उसके मालिक संपादक का सत्ता के सामने बेरीढ़ होना आज के ‘गोदी मीडिया’ की एक पूर्व बानगी  भर है.   “बिसू की मौत ने एकाएक ‘मशाल’ को प्रजातंत्र की जिम्मेदारियों से लैस करके एक महत्वपूर्ण अखबार बना दिया और दत्ता बाबू को एक जिम्मेदार संपादक.” उपन्यास की यह  वक्रोक्ति इस विडम्बना की मारक अभिव्यक्ति है.  आज ‘महाभोज’ का पुनः पाठ करते हुए यह  तथ्य  शिद्दत से उजागर होता है कि उपन्यास में अन्तर्निहित राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि किसी एक क्षेत्र विशेष तक सीमित न होकर बिहार, उत्तर प्रदेश ,राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, छतीसगढ़, ,झारखण्ड ,महाराष्ट्र से लेकर आंध्र प्रदेश तक हर कहीं विस्तृत है. आज यह अंतर जरूर है कि जो लखन और जोरावर , दा साहब और शुकुल बाबू की कठपुतली थे वे अब स्वयं खुदमुख्तार होकर सत्तातंत्र के हिस्सेदार हो गए हैं. राजनीति अब दबंगों का इस्तेमाल नहीं करती बल्कि अब दबंग स्वयं राजनीति को नियंत्रित करने लगे हैं.  यद्यपि यह भी सच है कि प्रतिरोध की चेतना का भी विस्तार उसी अनुपात में हुआ है जिस अनुपात में सत्ता-तंत्र द्वारा उत्पीड़न और दमन . ‘महाभोज’ का महत्व यह   भी है कि मन्नू भंडारी ने प्रतिरोध और उत्पीड़न के इस त्रासद कथ्य  को तब रचनात्मक स्वरुप प्रदान किया था ,जब यह आज की तरह न तो संगठित था और न ही प्रभावी. कहना न होगा कि बिहार की रणवीर सेना हो या दंतेवाडा का लाल गलियारा ‘महाभोज’ में इनकी आहटें सुनी जा सकती हैं.

    

‘महाभोज’  जहाँ भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के  उच्च आदशों ,त्याग और जनसेवा की विदाई की कथा  है वहीं  यह  स्वातंत्रोत्तर  चुनावी राजनीति की विकृति को उजागर करते हुए  राजनीति के बदलते मुहावरे की भी पहचान करती है. राजनीति के सर्वग्रासी स्वरुप ने जिस तरह अफसरशाही के साथ ताल-मेल बिठाकर समूची व्यवस्था को जनविरोधी शिकंजें में कैद कर लिया है उसका प्रामाणिक साक्ष्य लेखिका द्वारा पुलिस अधिकारी सिन्हा और सक्सेना के विरोधाभासी चरित्रों के माध्यम से उजागर होता है. डीआईजी सिन्हा जहाँ अपनी रीढ़विहीनता के चलते पदोन्नति की सीढियां चढ़ता  है वहीं कर्तव्यनिष्ठ पुलिस अधीक्षक  सक्सेना को निलम्बन का तमगा मिलता है. ‘महाभोज’ के जश्न से विमुख मंत्रिमंडल से बर्खास्त लोचन बाबू, सक्सेना और बिन्दा –‘पूरी तरह उपेक्षित, परित्यक्त  और एक तरफ फेंकें हुए’  ऐसे औपन्यासिक चरित्र हैं जो अपनी अंतरात्मा के कैदी हैं .उपन्यास में बिन्दा की पत्नी रुक्मा के रूप  में लेखिका ने एक ऐसे चरित्र की निर्मिति की है जो पारंपरिक स्त्री की भूमिका फलांगते  हुए संघर्षशील बिसू के प्रति मैत्री और सहकार के भाव से आबद्ध है. बिसू की हत्या के बाद जिस तरह उसके पति बिन्दा को ही इस हत्या का दोषी बनाने का षड्यंत्र रचा गया उससे रुक्मा की घुटन और निर्दोष पति को बचाने की छटपटाहत ,इस उपन्यास के अत्यंत मार्मिक प्रसंग  बन कर प्रस्तुत हुए हैं.

    

‘महाभोज’ का अतिरिक्त महत्व इस तथ्य में अन्तर्निहित है कि इसके औपन्यासिक कथ्य में भारतीय समाज की वर्णाश्रमी जातिभेद पर आधारित सामंती संरचना के  शोषणतंत्र की अंतर्धारा लगातार उपस्थित रहती है. इस  सामंती ठसक की एक  बानगी उपन्यास में कुछ यूं है,  “ इन हरिजनों के बाप-दादे हमारे बाप-दादों के सामने सिर झुकाकर रहते थे . झुके-झुके  पीठ कमान की तरह  टेढ़ी हो जाती थी . और ये ससुरे सीना तानकर आँख में आँख गड़ाकर बात करते हैं ,बर्दाश्त नहीं होता यह सब हमसे.”  दलित टोले के बिसू का अपराध यही था कि वह अपने समाज के लोगों को जागरूक बनाता था .  “अपने अधिकारों के लिए .जैसे सरकार ने जो मजदूरी तय कर दी है ,वह जरूर लो ..नहीं दें तो काम मत करो.” कहना न होगा कि ‘महाभोज’ के बिसू और बिन्दा सरीखे पात्रों का सृजन  करके मन्नू भंडारी ने भारतीय जनतंत्र के ‘सामाजिक ‘और ‘आर्थिक’ जनतंत्र में उस रूपांतरण की संघर्षगाथा को रचनात्मक बनाया है जो आम्बेडकर का अभीष्ट था. यह करते हुए  मन्नू भंडारी  गांधी के उस ‘हरिजन मॉडल’ से मुक्त हैं जो दया और मानवीय अनुकम्पा  तक सीमित था. यह अनायास नहीं है कि ‘महाभोज’ का बिसू दलित प्रतिरोध को स्वर देने के साथ साथ ‘पूरे सेटअप को लेकर ही परेशान रह्त्ता था’. गाँव में ‘क्लास स्ट्रगल और कास्ट स्ट्रगल’ विषय पर शोध कर रहे महेश से उसका उलाहना था कि “आप जैसे  पढ़े-लिखे लोग खाली तमाशबीन ही बनकर बैठे रहेंगें तो इन गरीबों की लडाई कौन लडेगा? जहाँ दिन-दहाड़े इतना जुलुम होता हो वहां कोई  कैसे अलग-थलग बैठकर खाली कागज पोतता रह सकता है?” 

   

‘महाभोज’ लिखे  जाने चार दशक बाद इस चर्चा के बहाने इस जिज्ञासा का उठना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों बीते वर्षों  में मुख्य धारा के  लेखकों द्वारा साम्प्रदायिकता पर केन्द्रित लगभग बीस से अधिक उपन्यास लिखे गए हैं  जबकि जातिगत शोषण और दलित प्रतिरोध की पृष्ठभूमि लिए उपन्यासों की संख्या लगभग नगण्य है. कहीं ऐसा तो नहीं है कि  जाति,वर्ण और वर्ग से मुक्त लेखन की जो परम्परा  प्रेमचंद, राहुल सांकृत्यायन , नागार्जुन और यशपाल से होती हुई जगदीश चन्द्र और मन्नू भंडारी तक विस्तृत हुई थी ,अब अवरुद्ध हो चुकी है.? दलित राजनीति और दलित विमर्श के उभार के इस दौर में हिन्दी की मुख्यधारा के लेखकों  द्वारा जाति-भेद और शोषण पर आधारित लेखन को लेकर उदासीनता  कहीं उनके अपनी जाति और वर्ग में वापसी के संकेत तो नहीं हैं? ‘महाभोज’ के पुनः पाठ के बहाने इस प्रश्न पर  विचार जरूरी है कि जब दलित प्रतिरोध को नक्सलवाद  और आदिवासी संघर्ष को  माओवाद के रूप में लांछित कर हाशिये के समाज की चेतना और प्रतिरोध का दमन तेज हो तब हिन्दी कथा साहित्य में इस विषय पर हृदयेश जोशी के ‘लाल लकीर’ सरीखे अपवाद को छोड़कर कमोबेश इन दिनों सन्नाटा क्यों ? जरूरत है कि मन्नू भंडारी ने ‘महाभोज’ में राजनीति के दुश्चक्र के बरक्स दलित प्रतिरोध को जिस मोड़ पर छोड़ा था उसे मौजूदा हालात के सन्दर्भ में तार्किक परिणतियों तक रचनात्मकता प्रदान करने की. 

     

'महाभोज’ पर यह  चर्चा अधूरी रहेगी यदि इस सन्दर्भ में ब्रिटिश लेखक फिल व्हाईटेकर के उपन्यास ‘इक्लिप्स ऑफ दि सन’ का उल्लेख न किया जाए .यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि फिल व्हाईटेकर इंग्लैंड में पले,बढे, डाक्टरी की पढाई किये हुए ऐसे लेखक हैं जिनका भारत से कोई प्रत्यक्ष संपर्क कभी नहीं रहा ,लेकिन उन्होंने अपना पहला ही उपन्यास  पूरी तरह भारतीय पृष्ठभूमि पर केन्द्रित किया है. इस उपन्यास का कथानक 24 अक्टूबर 1995 का सूर्यग्रहण और भारत में उससे जुड़े अंधविश्वासों पर आधारित है. ‘महाभोज’ से इस उपन्यास का रिश्ता यह है कि इस उपन्यास के कथ्य में ‘महाभोज’ लेखिका के नामोल्लेख के साथ शामिल है. उल्लेखनीय यह भी है कि फिल व्हाईटेकर अपने औपन्यासिक पाठ (टेक्स्ट) में  ‘महाभोज’ उपन्यास की उपस्थिति मात्र हिन्दी के एक उपन्यास के ही रूप में न दर्ज कर इसका अपना पाठ भी प्रस्तुत करते हैं. ‘इक्लिप्स ऑफ़ दि सन’ की प्रमुख पात्र सुमिला ‘महाभोज’ पढ़ते हुए सोचती है कि क्या उसके श्वसुर ,जो आज़ादी के आन्दोलन के दौरान अंग्रेज सेना में कनिष्ठ अधिकारी थे, ‘महाभोज’ के निलम्बित पुलस अधिकारी  सक्सेना की तरह   “कभी  इस दु:स्वप्न से गुजरे होंगें कि अपने जीवन के ऐतिहासिक निर्णायक क्षण में सही निर्णय लेने में वे असमर्थ रहे थे.” ‘महाभोज’ पढ़ते हुए सुमिला के मन की “ वे इच्छाएं  और महत्वाकांक्षाएं जागृत हो रही थीं जिनकी गहरी नींद में किसी टेलीविजन कार्यक्रम द्वारा कोई बाधा नहीं उत्पन्न हुई थी . एक महिला द्वारा लिखित यह उपन्यास पुरुषों की दुनिया के कुत्सित यथार्थ की विडम्बनापूर्ण प्रस्तुति करने वाला था.” 

  

'महाभोज’ पढ़ते हुए एक अंग्रेजी उपन्यास  की स्त्री-पात्र  का यह व्यक्तित्वांतरण ‘महाभोज’ का विस्तारित भाष्य है. ‘महाभोज’ की प्रमुख स्त्री पात्र रुक्मा की सोच से सुमिला की यह संगति और फिर यह मानसिक द्वंद्व  कि “ रुक्मा द्वारा बिसू की मौत का रहस्य न खोला जाना  भले ही किन्हीं अर्थों में उसके लिए  उचित हो ,लेकिन जिस काली अंधेरी दुनिया को मन्नू भंडारी ने सुमिला के लिए अनावृत्त किया था उसमें यह न्यायसंगत नहीं था.”  ‘महाभोज’ और उसकी लेखिका से प्रेरणा प्राप्त कर  फिल व्हाईटेकर  के उपन्यास की सुमिला के मन में लेखकीय महत्वकांक्षा का बीजारोपण एक ऐसा प्रछन्न नारी-विमर्श है ,जो संभवतः मन्नू भंडारी के औपन्यासिक अजेंडे पर भी नहीं था.

     

'महाभोज’ का यह पुनः पाठ करते हुए  राजनेता दा साहब का ‘गीता’ भक्त होना वर्तमान राजनीतिक सन्दर्भों में नई अर्थ-ध्वनियों का आभास देता है. ‘महाभोज’ के दा साहब के लिए  “गीता  का उपदेश  उनके जीवन का मूल मन्त्र है. घर के हर कोने में गीता की एक प्रति मिल जायेगी . वैसे वह कभी किसी को उपहार देते नहीं , व्यर्थ के ढकोसलों में कतई विश्वास नहीं है उनका .पर फिर भी कभी उपहार देना ही पड़ गया तो सदा गीता की प्रति ही दी है.” गीता भक्त दा  साहब  बिसू के मित्र बिन्दा की झूठ-मूठ के मामले में गिरफ्तारी का षड्यंत्र जिस स्थिरप्रज्ञता के साथ रचते हैं ,उससे उनका पाखंडी  व्यक्तित्व ही उजागर नहीं होता ,बल्कि  धर्म-ग्रन्थ  को ढाल बनाने की कुटिलता भी उजागर होती है . आज जब गीता को राष्ट्रीय ग्रन्थ बनाने  और अंतर्राष्ट्रीय राजनय में इस्तेमाल करने की नयी युक्तियाँ सामने हैं  तो कई ‘दा साहबों’ के चेहरे पहचाने जा सकते हैं. 

    

स्वीकार करना होगा कि आज जब दलित राजनीति का अधिग्रहण एक सुस्वादु ‘महाभोज’ में तब्दील हो गया है तब  मन्नू  भंडारी का यह उपन्यास वर्तमान राजनीति को समझने की पूर्व-पीठिका होने के साथ साथ हाशिये के समाज की नियति और प्रतिरोधी चेतना का ज्वलंत  दस्तावेज़ भी है.


वीरेंद्र यादव

© Virendra Yadav

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