कैलाश मनहर भाई की इस बेहद असरदार कविता से गुजर कर देखें।
तल्ख सच्चाइयों से दो चार होकर देखें :
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आजकल कानों में आवाज़ें बहुत आती हैं
इधर से चीखने,रोने,विलाप करने की,
उधर से धमकियाँ,और गालियाँ रंजिश से भरी
वहाँ से लूट लो,पकड़ो इसे,अब छोड़ना मत
यहाँ से मार दो,दफ़्ना दो,जला दो सब कुछ
कहीं से रख भी ले,संभाल ले,की खुसरफुसर
कहीं से वोट दो,लो जीत गये,के नारे
उस तरफ़ से कि,कल तुमको देख लेंगे हम
इस तरफ़ से कि,हम सरकार हैं सबके मालिक
आजकल कानों में आवाज़े बहुत आती हैं
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रात भर चीखता,चीत्कार करता है जंगल
पेड़ मुर्झाये हैं,तालाब पड़े हैं सूखे
फूल खिलते नहीं,बरसों से इधर घाटी में
बाघ और नीलगाय,दौड़ते नहीं दिखते
आते हैं गाड़ियाँ,लेकर बहुत शिकारी अब
ट्रकों में भरते हैं शीशम के कटे पेड़ों को
गाँवों कस्बों में आ रहे हैं जानवर सारे
रास्ते खो चुके,डामर की चिकनी सड़कों में
शिकारियों का है अड्डा कि,जो ये होटल है
रात भर चीखता,चीत्कार करता है
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सुबह के वक़्त,ये पर्वत विलाप करता है
निकाले जा चुके,पत्थर तमाम खानों से
कूटती टूटती हैं रोड़ियाँ,क्रेशर में रोज़
चल रही हैं मशीनें,यहाँ पे रात औ" दिन
शहर बसते हैं पहाड़ों को काट कर सारे
झरने अब प्यास बुझाते हैं पूँजीपतियों की
अब नहीं जाते,नौज़वान आदिवासी वहाँ
सिर्फ़ मज़दूर हैं सौ रुपया रोज़ के वे बस
मर चुका इश्क़,जो लोगों को पहाड़ों से था
सुबह के वक़्त ये पर्वत विलाप करता है
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नदी की सिसकियाँ,सुनता हूँ दोपहर में मैं
हाय,वह सूख चुकी है,अतल में गहरे तक
कहीं नहीं है,अब जल-धारा का प्रवाह कोई
आर्द्रता तनिक भी,नहीं है जलती आँखों में
रेत है रेत,बस दहकती हुई चारों तरफ़
राहगीरों के कंठ,तर भी करे तो कैसे
खुद नदी जब कि,अपनी रूह तलक़ प्यासी है
बन रहा जैसे,मरूस्थल है दूर तक केवल
सुन रहे हैं कि यहाँ,शहर नया बसना है
नदी की सिसकियाँ सुनता हूँ दोपहर में मैं
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गूँजता है रुदन,खेतों में उधर रह रह के
हो चुकी है ज़मीं,बंजर विदेशी बीजों से
घर के उपवन से भी,आती हैं कराहें अक्सर
कैक्टस हैं हरे,पौधे सभी हैं ठूँठ वहाँ
जैसे हर ओर है वातावरण शोकाकुल-सा
पेड़ों से पंछियों के,घोंसले भी ग़ायब हैं
हवा के नाम पे,उठती हैं आँधियाँ एकदम
बारिशें जहर की,ढाती हैं कहर तूफ़ानी
किसान,खुदकशी करने लगे हैं गाँवों में
गूँजता है रूदन,खेतों में उधर रह रह के
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आहें आती हैं,गले घुट रहे हैं गलियों के
सडाँध मारती हैं,नालियाँ शहर भर की
सड़कों पे शोरोगुल,हड़कम्प,आपाधापी है
शहर की साँसों में है,चिमनियों का काला धुँआ
कचरे के ढ़ेर हैं हर ओर,सियासत की तरह
खून में लिथड़े,रास्तों पे आना-जाना है
भीड़ में लुप्त हैं,लाचार-से जन-पथ सारे
राज-पथ हरियाली,औ" रौशनी में डूबे हैं
स्वच्छता-मिशन के चर्चे हैं कागज़ों में बहुत
आहें आती हैं,गले घुट रहे थे गलियों के
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हरेक दिशा से विकल,आर्तनाद आता है
धर्मोमज़हब हैं जैसे,सबसे बड़े आतंकी
सुन रहे हैं कि अब,ग्लोबल विलेज है दुनिया
किन्तु सब कुछ,सिमट रहा है स्मार्ट-सिटी में
काम होते हैं दफ़्तरों में,डिजिटल सारे
आदमी कार्ड और डिजिट में सिमटे जाते हैं
पूँजी और बाहुबल के,साथ मिला कर छल को
नाम खुशहाली का,लेते हुये शैतान सभी
सारी इन्सानियत,का क़त्ल किये जाते हैं
हरेक दिशा से विकल आर्तनाद आता है
🔴कैलाश मनहर
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चित्र-विमलविश्वास
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