मैंने बचपन में खिलौना तक कभी माँगा नहीं। .
मेरा बेटा माँगता है गोलियाँ मेरे पिता।
- माणिक वर्मा
हमारे दौर के बच्चों को क्या हुआ लोगों
खिलौना छोड़कर चाकू खरीद लाए हैं।
- डॉ० कलीम कैसर
मैं खिलौनों की दुकानों का पता पूछा किया
और मेरे फूल से बच्चे सयाने हो गए।
- प्रभात शंकर
जुगनू को दिन के वक़्त पकड़ने की ज़िद करें
बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गए।
- परवीन शाकिर
आज के बच्चों का भयावह सच उजागर करती उपर्युक्त इन पंक्तियों ने अभिभावकों के मन और मस्तिष्क को झकझोर कर रख दिया है। अध्यापक/अध्यापिकाओं के सामने भी यह खुली चुनौती है। वर्षों पूर्व आयोजित राष्ट्रीय बाल भवन, नई दिल्ली की राष्ट्रीय संगोष्ठी में मैंने यह बात कही थी कि मीडिया ने आज के बच्चों को उनकी वास्तविक उम्र से कम से कम 10 वर्ष बड़ा कर दिया है। उस समय मेरी इस बात पर सहमति-असहमति के अलग-अलग स्वर उभरे थे। संगोष्ठी में उपस्थित लोगों के तरह-तरह के तर्क थे परंतु कंप्यूटर, लैपटॉप, इंटरनेट, साइबर कैफे, भूमंडलीकरण और मीडिया आदि के बढ़ते प्रभाव ने आज के बच्चों को अपनी गिरफ़्त में लेकर मेरी उपर्युक्त बात को सच प्रमाणित कर दिया है। लखनऊ से प्रकाशित राष्ट्रीय सहारा में 4 नवंबर 2013 को संपादकीय पृष्ठ की इस रिपोर्ट ने तो उस समय लोगों की नींद उड़ा दी थी-
*"पिछले साल (सन् 2012) चेन्नई में कक्षा 11 के 15 वर्षीय छात्र मोहम्मद इरफान ने हिन्दी की शिक्षिका उमा श्रीवास्तव की चाकू घोंपकर हत्या कर दी थी। इसके पहले वैश्विक संस्कृति की आदर्श श्रेणी में आ चुके और साइबर सिटी का मुहावरा बन चुके, दिल्ली से सटे शहर गुड़गाँव में भी आधुनिक शिक्षा की यही दुष्परिणति देखने में आई थी जहाँ के कुलीन बच्चों को विद्यार्जन कराने वाले यूरो इंटरनेशनल स्कूल के आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले दो छात्रों ने अपने ही सहपाठी की छाती गोलियों से छलनी कर दी थी। इसी तरह की एक घटना दिल्ली की है, जहाँ चोर-सिपाही का खेल खेल रहे एक 12 साल के बच्चे ने सचमुच की पिस्तौल को को खिलौना समझकर इसे अपने ही पड़ोस के एक दोस्त पर दाग दिया जिससे बच्चे की मौत हो गई। एक और घटना उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक गाँव की है जहाँ ग्यारहवीं के एक छात्र ने अध्यापक की डाँट से बौखलाकर उनके पेट में छुरा घोंप दिया था"*
ऐसी घटनाएँ दिल को तो दहलाती ही हैं, आज के बच्चों के बारे में फिर से नए सिरे से सोचने के लिए भी मजबूर करती हैं। आज के बच्चों का एक नया पहलू यह भी है कि अब बच्चे आउटडोर खेल-कूद, किस्से -कहानी, रूठना-मनाना तथा हँसी-ठिठोली की मौज़-मस्ती भूल गए हैं। हम भले ही इस तथ्य को नजरअंदाज करना चाहें परंतु वास्तविकता बहुत दूर तक हमारा पीछा नहीं छोड़ती है।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व में डेढ़ करोड़ से अधिक बच्चे एड्स से पीड़ित हैं। कई हजार बच्चे विकलांगता के शिकार हैं। लाखों बच्चे खतरनाक उद्योग-धंधों में लगे हुए हैं। सिर्फ अलीगढ़ के ताला उद्योग में पच्चीस-तीस हजार से अधिक बच्चों का काम करना या अकेले दिल्ली में लगभग कई लाख बालमजदूरों का होना तथा फीरोजाबाद के चूड़ी उद्योग में बच्चों का काम करना आश्चर्य की बात नहीं है। इन उद्योग-धंधों में लगे बच्चे हों या शिवाकासी के पटाखा उद्योग में लगे बच्चे, तथ्य यही है कि गरीबी की मार झेल रहे इन बच्चों का बचपन सिसक रहा है। इन बच्चों की बेचारगी ने कवि कुँवर बेचैन को यह लिखने के लिए मजबूर कर दिया-
दुकानों में खिलौने देखकर मुँह फेर लेते हैं
किसी मुफ़लिस के बच्चों की कोई देखे ये लाचारी।
किसी दिन देख लेना वो उन्हें अंधा बना देगी
घरों में कैद कर ली है जिन्होंने रोशनी सारी।
तथ्य तो यह भी है कि भारत के लगभग तीन करोड़ बच्चों में से बहुत से बच्चे आर्थिक रूप से ऐसे माहौल में रहते हैं जहाँ उन्हें बालश्रम का दंश झेलना ही पड़ता है। बालश्रम समाज में एक खौफनाक सच बन चुका है। डॉ0 आशीष वशिष्ठ की एक रिपोर्ट चौंकाने वाली है--
*"5 से 12 साल तक की उम्र के बच्चे बालशोषण के सबसे ज्यादा शिकार होते हैं। हैरत की बात यह है कि हर तीन में से दो बच्चे कभी न कभी शोषण का शिकार रहे हैं। एक अध्ययन के दौरान लगभग 53.22% बच्चों ने किसी न किसी तरह के शारीरिक शोषण की बात स्वीकार की तो 21. 90% बच्चों को भयंकर शारीरिक उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा। देश का हर दूसरा बच्चा भावनात्मक शोषण का भी शिकार है।"*
बालश्रम का फैलाव इतना अधिक है कि बच्चे दबावों के बीच में पिस रहे हैं। उनकी हालत देखकर वर्षों पूर्व लिखी गई वरिष्ठ कवि राजेश जोशी की निम्नलिखित पंक्तियाँ समाज की चेतना को बुरी तरह झकझोर देती हैं। ये पंक्तियाँ हम जब भी पढ़ते हैं तो अनायास हमारी आँखें नम हो जाती हैं। एक बहुत बड़ा सवाल हमारे सामने मुँह बाए खड़ा हो जाता है। हकीकत बयान करता यह सवाल आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना तब था जब ये पंक्तियाँ लिखी गई थीं-
काम पर क्यों जा रहे हैं बच्चे
क्या अंतरिक्ष में गिर गई हैं सारी गेंदें
क्या दीमकों ने खा लिया है
सारी रंग-बिरंगी किताबों को
क्या काले पहाड़ के नीचे दब गए हैं सारे खिलौने
क्या किसी भूकंप में ढह गई हैं
सारी मदरसों की इमारतें
क्या सारे मैदान, सारे बगीचे और घरों के आँगन
खत्म हो गए हैं एकाएक
तो फिर बचा ही क्या है इस दुनिया में?
आधुनिक कविता के प्रखर कवि राजेश जोशी ने सवाल भी उठाया और अंत तक आते-आते उसका जवाब भी दे दिया। उनका यह कहना सार्वभौमिक सच है कि अगर बच्चों से जुड़ी सारी चीजें खत्म हो गई हैं तो इस दुनिया में बचा ही क्या है? अगर बच्चे की दुनिया से उसका रंग-बिरंगा संसार, उसका खिलंदड़ापन, उसका नटखट फक्कड़पन और उसकी मौज-मस्ती गायब हो गई है तो सिवाय नीरसता के के बचा ही क्या है?
बच्चों के प्रिय कवि निरंकारदेव सेवक ने आज से चालीस वर्षों पूर्व लिखा था कि- *"बच्चों का संसार बड़ों के संसार से सर्वथा भिन्न होता है और उसमें रहे-बसे बिना इसका अनुभव नहीं हो सकता। बड़े होकर बच्चा बनना एक सतत् साधना और अभ्यास का काम है। आज किसे इतना अवकाश है कि इस पचड़े में पड़े। हमारे समाज में जब बच्चा ही उपेक्षित है तो उसके लिए लिखा हुआ साहित्य भी क्यों नहीं होगा।"*
-ताम्रपर्णी: फरवरी-अप्रैल: 1978-79,पृष्ठ 4
वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना तो बच्चों के प्रति हमारी मानसिकता को बड़ी व्यंग्यात्मक शैली में प्रस्तुत करते हैं-
कुछ बच्चे बहुत अच्छे होते हैं
वे गेंद और गुब्बारे नहीं माँगते मिठाई भी नहीं माँगते
जिद नहीं करते हैं
और मचलते तो है ही नहीं
बड़ों का कहना मानते हैं
वे छोटो का भी कहना मानते हैं इतने अच्छे होते हैं
इतने अच्छे बच्चों की तलाश में रहते हैं हम
और मिलते ही उन्हें घर ले आते हैं अक्सर तीस रुपए महीने और खाने पर।
जनवादी कवि गोरख पांडेय तो बच्चों के मामले में पूरे समाज को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं-
बच्चों के बारे में बनाई गईं ढेर सारी योजनाएँ
ढेर सारी कविताएँ लिखी गई बच्चों के बारे में
बच्चों के लिए खोले गए ढेर सारे स्कूल
ढेर सारी किताबें बाँटी गईं बच्चों के लिए
बच्चे बड़े हुए
जहाँ थे वहाँ से उठ खड़े हुए बच्चे
बच्चों में से कुछ बच्चे
हुए बनिया, हाकिम और दलाल हुए मालामाल और खुशहाल बाकी बच्चों ने सड़क पर कंकड़ टोड़ा
दुकानों में प्यालियाँ धोईं
साफ किया टट्टी-घर
खाए तमाचे
बाजार में बिके कौड़ियों के मोल गटर में गिर पड़े
बच्चों में से कुछ बच्चों ने
आगे चलकर फिर बनाई योजनाएँ बच्चों के बारे में कविताएँ लिखीं स्कूल खोले, किताबें बाँटी बच्चों के लिए।
आज का बच्चा समस्याओं से जूझ रहा है। टूटते संयुक्त परिवारों ने बच्चों के सामने अनगिनत प्रश्न खड़े कर दिए हैं। दादी-नानी के आँचल की छाँव में पलने वाला बच्चा 'क्रेश' में आया की गोद में पल रहा है। आजीविका की आपा-धापी में दौड़ते हुए माता-पिता के पास समय का संकट है। अगर ऐसे समय में आज का कवि -- जन्म से बोझ पा गए बच्चे, पालने में बुढ़ा गए बच्चे। -- (शिव ओम अंबर) जीवन का सच लिखते हैं तो हमें इसे स्वीकार करना ही होगा।
पालने के संकट से अभी बच्चे उबर भी नहीं पाए थे कि उन्हें बस्ते के बोझ ने आक्रांत कर दिया। बोझ इतना बड़ा की बालमन कराह उठा। बस्ते के बढ़ते बोझ से होमवर्क का बढ़ना लाजमी था, जिसका परिणाम यह हुआ कि बच्चे होमवर्क से आतंकित हो गए। स्वतंत्र टिप्पणीकार पंकज चतुर्वेदी की होमवर्क के बारे में हिन्दुस्तान दैनिक के संपादकीय पृष्ठ पर छपी यह टिप्पणी बड़ी महत्त्वपूर्ण है- *"आज छोटे-छोटे बच्चे होमवर्क के आतंक में दबे पड़े हैं, जबकि यशपाल समिति की सलाह थी कि प्राइमरी कक्षाओं में बच्चों को गृहकार्य इतना दिया जाना चाहिए कि वे अपने घर के माहौल में नई बात खोजें और उन्हीं बातों को विस्तार से समझें। आज तो होमवर्क का मतलब ही पाठ्यपुस्तक के सवालों-जवाबों को काॅपी पर उतारना या उसे रटना रह गया है।"*
बस्ते के बोझ की यह व्यथा निम्नलिखित पंक्तियों में उभरकर सामने आई है-
इक ऐसी तरकीब सुझाओ, तुम कंप्यूटर भैया।
बस्ते का कुछ बोझ घटाओ, तुम कंप्यूटर भैया।
हिंदी, इंग्लिश, जी०के० का ही,बोझ हो गया काफी
बाहर पड़ी मैथ की कॉपी, कहाँ रखें 'ज्योग्राॅफी'।
रोज-रोज यह फूल-फूलकर, बनता जाता हाथी।
कैसे इससे मुक्ति मिलेगी, परेशान सब साथी।
'होमवर्क' इतना मिलता है, खेल नहीं हम पाते।
ऊपर से ट्यूशन का चक्कर, झेल नहीं हम पाते।
पढ़ते-पढ़ते ही आँखों पर, लगा लेंस का चश्मा।
भूल गया सारी शैतानी, कैसा अजब करिश्मा।
घर बाहर सब यही सिखाते, अच्छी भली पढ़ाई।
पर बस्ते के बोझ से भैया, मेरी आफत आई।
बच्चा अपनी समस्या का निराकरण चाहता है जिसके लिए वह कंप्यूटर की शरण में जाता है। उसकी कंप्यूटर से प्रार्थना बड़ी दिलचस्प है-
मेरी तुमसे यही प्रार्थना, कुछ भी कर दो ऐसा।
फूला बस्ता पिचक जाए, मेरे गुब्बारे जैसा।
- इक्कीसवीं सदी की ओर : पृष्ठ 37
बदलते जीवन मूल्यों और सूचना-प्रौद्योगिकी से संपन्न इस युग में बच्चों के सामने समस्याओं का अंबार लगा है। समस्याओं की लंबी-चौड़ी सूची में कुछ और नई समस्याएँ जोड़ देना आसान है, परंतु उनका निराकरण करना अपने आप में बड़ा जटिल है। बालसाहित्य के सुप्रसिद्ध समीक्षक और रचनाकार डॉ0 हरिकृष्ण देवसरे ने वर्षों पूर्व यह सवाल उठाया था कि- *"हम बच्चों को कैसा भविष्य देंगे यह एक पेचीदा सवाल बन गया है। विश्व भर के बच्चे किसी न किसी खतरे, पीड़ा या संकट से आतंकित हैं। आखिर हम उनके लिए कैसी दुनिया का निर्माण करने जा रहे हैं? यह संपूर्ण मानवता के अस्तित्व और भविष्य से जुड़ा हुआ प्रश्न है।"*
गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने बच्चों के बारे में बिल्कुल सही लिखा था कि-
*"ठीक से देखने पर बच्चे जैसा पुराना और कुछ नहीं है। देश-काल, शिक्षा, प्रथा के अनुसार वयस्क मनुष्यों में कितने परिवर्तन हुए हैं, लेकिन बच्चा हजारों साल पहले जैसा था, आज भी वैसा ही है। वही अपरिवर्तनीय, पुरातन बारंबार आदमी के घर में बच्चे का रूप धर कर जन्म लेता है लेकिन तो भी सबसे पहले दिन वह जैसा नया था, जैसा सुकुमार था, जैसा भोला था, जैसा मीठा था, आज भी ठीक वैसा ही है। इस जीवन चिरंतनता का कारण यह है कि शिशु प्रकृति की सृष्टि है जबकि वयस्क आदमी बहुत अंशों में आदमी की अपने हाथ से रचना होता है।"*
- रवीन्द्रनाथ के निबंध :422, 23
इसे और आगे स्पष्ट करते हुए रवींद्रनाथ नाथ टैगोर कहते हैं कि- *"बालक की प्रकृति में मन का प्रताप बहुत क्षीण होता है। जगत, संसार और उसकी अपनी कल्पना उस पर अलग-अलग आघात करती है। एक के बाद दूसरी आकर उपस्थित होती है। मन का बंधन उसके लिए पीड़ाजनक होता है। सुसंलग्न कार्य-कारण सूत्र पकड़कर चीज को शुरू से लेकर आखिर तक पकड़े-पकड़े चलना उसके लिए दुस्साध्य होता है "*
- वही :पृष्ठ 427
कुछ नए की तलाश आज के बच्चों की आवश्यकता है। पुरानी चीजों का मोहभंग उनकी नियति में शामिल हो गया है। ऐसे में बालसाहित्य से जुड़े लेखकों, संपादकों, प्रकाशकों और अभिभावकों की भूमिका चुनौतीपूर्ण है। यदि हम ऐसे माहौल में भी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और बच्चों के लिए तथा उनके परवरिश के बारे में कुछ नया और महत्त्वपूर्ण नहीं सोचा तो वह दिन दूर नहीं जब बच्चा भविष्य के लिए एक चुनौती बन जाएगा। परंपरागत और बासी हो चुके बालसाहित्य को नई-नई प्लेट में सजाकर (भले ही वही सजी-धजी हो) परोसते रहे तो वह दिन दूर नहीं जब बच्चा-
लोरी नहीं सुनाओगे तो रोएगा
वही चाँद दिखाओगे तो रोएगा
वही खिलौने दोगे तो रोएगा
वही दूध भात खिलाओगे तो रोएगा
बच्चा कुछ नया चाहता है
नहीं पाएगा तो रोएगा।
आज समाज में बच्चों और बालसाहित्य से जुड़े हुए लोगों के सामने समस्याओं से जूझते हुए तथा अनंत संभावनाओं से परिपूर्ण बच्चों को हँसाने की चुनौती है, नए और पुराने के संक्रमण की चुनौती है, बाजार की चकाचौंध से बाहर निकलने की चुनौती है, और चुनौती है कुछ नया कर दिखाने की। आजकल पत्रिका के संपादक प्रवीण उपाध्याय के स्वर में स्वर मिलाते हुए कहें तो- *"बच्चे में हर पल नई-नई बातें सीखने और देखने की ललक होती है। वह बहुत जल्दी पुरानी चीजों से ऊब जाता है। आज विज्ञान ने पूरी दुनिया की रफ़्तार तेज कर दी है। हर पल कुछ न कुछ नया करने की होड़ मची हुई है। सूचना-क्रांति के चलते पूरी दुनिया सूचना पर आधारित होती जा रही है। बच्चों के सामने टेलीविजन और इंटरनेट पर दुनिया भर की सूचनाएँ उपलब्ध हैं। बाजार की चकाचौंध है। शिक्षा और ज्ञान भी बाजार के फार्मूले पर तैयार किया जाने लगा है। ऐसे में यदि बच्चे किताबों की ओर से विमुख हो रहे हैं, तो दोष न तो बच्चों का है और न ही आधुनिकता के बढ़ते प्रभाव का। इसके लिए तो बालसाहित्य के रचनाकारों प्रकाशकों और बाल -विशेषज्ञों को ही रास्ता ढूँढ़ना होगा। इस आधुनिकता का लाभ उठाकर उन्हें ही कोई न कोई कोई ऐसा मार्ग तलाशना होगा जिससे बच्चों में बालसाहित्य के प्रति ललक कम न हो"*
- आजकल (मासिक) :नवंबर सन् 2005: पृष्ठ 2
जहाँ तक मैं समझता हूँ- आज के बच्चों में बालसाहित्य के प्रति ललक तभी बढ़ेगी, जब बालसाहित्य बच्चों से अपना रिश्ता कायम करेगा, और यह रिश्ता जैसे-जैसे प्रगाढ़ होगा, बच्चों का साहित्य के प्रति वैसे-वैसे अनुराग बढ़ता जाएगा। बालसाहित्य को बच्चों की दुनिया में पैठ बनाकर उनके मन की साँकल को खटखटाना होगा, उनके विचारों के दरवाजों को खोलना होगा और करना होगा उनसे आत्म साक्षात्कार, तभी डॉ० सुभाष रस्तोगी की निम्नलिखित पंक्तियाँ सच साबित होंगी-
कविता बाइस्कोप नहीं है
कि बच्चे उससे एकदम खिंचे आएँ
और नाचते-गाते बच्चों की
एक पूरी दुनिया सामने देख
अपना दुख भूल जाएँ।
*********************
इसलिए मैं चाहता हूँ
बच्चों से रिश्ता कविता का
साफ-साफ तय हो।
मैं चाहता हूँ
कविता अगर बच्चों के साथ
बढ़ाएं दोस्ती की पींग
तो चिड़ियों/फलों/रंगों के साथ ही
स्लेट /पेंसिल /नेकर और कमीज
की भी बात करें।
- जागृति :सितंबर-दिसंबर, सन् 1992: पृष्ठ 24
इक्कीसवीं सदी इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इसकी शुरुआत धमाकेदार हुई। चर्चा में आए हैरी पॉटर ने एक बार फिर बालसाहित्यकारों के बीच में, बच्चों के लिए लिखने की चुनौती सामने रखी। सोई हुई संवेदनाओं को झकझोरा--- बच्चे मीडिया के लिए चर्चा में आ गए। हैरी पॉटर की लोकप्रियता ने कई सवाल भी खड़े किए। हैरी पॉटर के तथ्यों, कथावस्तु का विश्लेषण, बच्चों की ग्राह्यता और मानसिक स्थिति, मीडिया हाइप, मार्केटिंग स्ट्रेटजी, जादू-टोना, भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र, अंधविश्वास और तिलिस्म जैसे सवाल इतने वर्षों बाद आज भी तैर रहे हैं।
डॉ० हरिकृष्ण देवसरे ने उस समय यह टिप्पणी की थी थी कि- *"हैरी पॉटर तो तिलिस्मी पाॅप बालसाहित्य है जो हवा के झोंके की तरह आकर चला जाने जाने वाला है।"*
- नवभारत टाइम्स: 8 सितंबर, सन 2005:पृष्ठ 10
डाॅ०क्षमा शर्मा ने यह लिखकर हैरी पॉटर की पूरी श्रृंखला को ही कटघरे में खड़ा कर दिया था कि- *" मीडिया हाइप के कारण एक किताब बिना पढ़े हिट हो गई।"*
- हिंदुस्तान, 23 सितंबर, सन 2005 :पृष्ठ 8
डाॅ० श्रीप्रसाद ने भी यह अभिमत व्यक्त किया था कि- *" हैरी पॉटर को महत्त्वपूर्ण कृति की अपेक्षा जादुई आकर्षण की कृति के रूप में अधिक पढ़ा गया।********* ********* *हैरी पॉटर को बालउपन्यास की दिशा मानना भूत-प्रेतों और भयावह स्थितियों की दुनिया में संक्रमण करना है, जो तार्किक बालसाहित्य सृजन की दिशा नहीं है।"*
- आजकल: नवंबर, सन 2005: पृष्ठ 37, 38
आश्चर्यजनक तथ्य यह भी है कि इसके बावजूद हैरी पाॅटर
छपती रही और उसने बिक्री के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। जे0के0 रोलिंग न केवल रातोंरात सुपरहिट हो गईं बल्कि अथाह संपत्ति की मालकिन भी हो गईं। हैरी पाॅटर के सभी प्रकाशित सातों खण्ड, उसके वीडियो तथा उसके पात्रों से बच्चों की ऐसी दोस्ती हुई कि बच्चे बड़ी जल्दी ही तिलिस्म की दुनिया में डूब गए। यहाँ एक तथ्य अवश्य जोड़ना चाहूँगा कि हैरी पाॅटर के बहाने ही सही बच्चों के विकास में स्वस्थ बालसाहित्य की भूमिका की न केवल जोरदार ढंग से चर्चा हुई बल्कि बच्चों के लिए लिखने, उन पर चर्चा करने तथा उनका स्वस्थ मनोरंजन करने की कवायद भी लगातार होती रही। बालसाहित्यकार डाॅ0 क्षमा शर्मा ने न केवल बच्चों से बालसाहित्य और चंदामामा के रिश्तों पर सवाल उठाए बल्कि दो टूक शब्दों में कह दिया था कि- *"बच्चे वैसी यथार्थ कथाएँ तो कतई नहीं पढ़ना चाहते, जिनमें पहली पंक्ति से ही कथा के अंत का बोध हो जाए। पूरी कहानी में उपदेशों की भरमार हो और मनोरंजन नदारद। इनमें न कब-क्यों-कहाँ जैसी जिज्ञासा जगाने वाली बातें होती हैं, न हीं आगे क्या हुआ के प्रति कोई उत्सुकता जगती है। कार्टून, जिन्हें बच्चे बेहद पसंद करते हैं, वे भी एक तरह से से परीकथाएँ ही हैं। कई सभा-सेमिनारों में चंद्रमा के बारे में बताया जाता है कि अब तो छुटपन से ही बच्चे चंद्रमा के बारे में जान जाते हैं कि वहाँ न पानी है और न ऑक्सीजन। वहाँ कोई नहीं रहता, चरखा कातने वाली वह बुढ़िया भी नहीं, जिसकी कहानी बच्चे अब तक सुनते आए हैं। तो क्या बच्चों की दुनिया में चाँद से जुड़ी सारी कहानियाँ या तमाम कथाओं में आने वाले चाँद के जिक्र या लोककथाएँ खारिज कर दी जाए? क्या चाँद से बच्चों का चंदामामा दूर के वाला करीबी रिश्ता बिल्कुल भुला दिया जाए?"*
-दैनिक जागरण :4 अप्रैल 2018 :पृष्ठ 8
यह सच है कि बच्चों को संस्कारित कर सही दिशा प्रदान करना बालसाहित्य का प्रमुख उद्देश्य है, मगर इसमें भी उतनी ही सच्चाई है कि मात्र कल्पनाओं के सब्ज़बाग दिखाकर बच्चों को भटकने के लिए छोड़ देना बाल साहित्य का उद्देश्य कदापि नहीं होना चाहिए। सच तो यह है कि बालसाहित्यकार बच्चों के लिए अपनी रचनाओं के माध्यम से ऐसे रास्ते का निर्माण करें जिसमें उतार-चढ़ाव के खतरे तो हो सकते हैं परंतु उन पर चलकर मंजिल आसानी से प्राप्त की जा सके। इक्कीसवीं शताब्दी इस दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है कि इस परिवेश में बच्चों के मन में उठने वाली हिलोरें बालसाहित्य में साफ़-साफ़ सुनाई दे रही हैं। बच्चा आनंदित और पुलकित होकर सुरीली ध्वनि में अपनी तान छेड़ रहा है-
फीड करेंगे कंप्यूटर में, अपना भारी बस्ता।
अब तक जिसको ढोते-ढोते, हालत मेरी खस्ता।
ट्यूशन से भी मुक्ति मिलेगी, खेलेंगे मैदान में।
गाएंगे मिल सा रे गा मा, बैठ सुरीली तान में।
उपर्युक्त कविता का उद्देश्य बच्चों को आने वाले बदलावों की एक तस्वीर दिखाकर उन्हें आगे के लिए तैयार करना था। अब बच्चे इक्कीसवीं शताब्दी में आकर पाठ्यक्रमों से इतर बालसाहित्य के उन्नयन की दिशा में हो रहे बदलावों से भी अच्छी तरह परिचित हो रहे हैं। बच्चों के विकास के लिए समर्पित संस्था यूनिसेफ द्वारा संचालित अनेक योजनाओं में बच्चों की बराबर भागीदारी हो रही है।
चिंतन की दृष्टि से बालसाहित्य पर पुनर्विचार इसलिए भी आवश्यक है कि आज बच्चों की सोच में आमूलचूल परिवर्तन हो गया है। मेरा मानना है कि बालसाहित्यकारों को अपनी रचनाधर्मिता की कसौटी बच्चों के इस स्तर पर देखने की जरूरत है- बच्चों के बदलते मनोविज्ञान से जुड़ा बालसाहित्य क्योंकि इसका सृजन उन्हीं के लिए किया जाता है। बालसाहित्यकारों के स्तर पर क्योंकि वही बालसाहित्य का सर्जक हैं। उन माता-पिता और अभिभावकों के स्तर पर जो बच्चों को बाल साहित्य खरीद कर उपलब्ध कराते हैं, वे अपने विवेक से उनके लिए पढ़ने की सामग्री का चयन भी करते हैं।
इन बिंदुओं पर गहराई से विचार करें तो निम्नलिखित बातें हमारे सामने आती हैं। आज इस तरह का बालसाहित्य लिखा ही जाना चाहिए जिसमें बच्चा अपने को प्रतिबिंबित पाए। उसकी जो भी समस्याएँ हैं वह सही परिप्रेक्ष्य में उसका प्रतिनिधित्त्व करें तथा सबसे महत्त्वपूर्ण बिंदु यह है कि बच्चे बालसाहित्य से अपनी समस्याओं पर काबू पाना सीख सकें।
विगत तीन-चार दशकों के बालसाहित्य पर व्यापक स्तर से विचार करें तो यह बात स्पष्ट रूप से उभरकर सामने आती है कि विविध विधाओं में व्यापक सृजन के साथ-साथ, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठियों-सेमिनारों, शताधिक शोध-कार्यों, व्यापक विचार-विमर्शों तथा लगातार चार विश्व हिन्दी सम्मेलनों में बालसाहित्य पर केन्द्रित सत्रों के बल पर समकालीन बालसाहित्य ने इस भ्रम को तोड़ा है कि हिंदी में बालसाहित्य का अभाव है या स्तरीय बालसाहित्य नहीं लिखा जा रहा है।अब उनकी बातें जाने दीजिए जो अपनी दोनों आँखें मूँदे हुए हैं और उनके दोनों कान भी बंद हैं, जब भी बालसाहित्य की बात आती है तो वह उसकी प्रगति की ओर ओर निहारना ही नहीं चाहते हैं नहीं चाहते हैं ऐसे लोगों का अरण्यरुदन तो पहले भी था, आज भी है और आगे भी जारी रहेगा।
*- डॉ०सुरेन्द्र विक्रम*
एसो० प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिन्दी विभाग
लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज
लखनऊ (उ0प्र0)-226018
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