रविवार, 30 जनवरी 2022

हत्या होगी / राकेशरेणु

 #इसी_से_बचा_जीवन_7



 

पहले कहा, डेढ़ सौ साल जीना चाहता हूँ 

फिर कहा, एक सौ बीस साल 

फिर एक सौ दस और सौ साल पर आए 

आगे चलकर नब्बे साल जीने की इच्छा जताई 

वे अपनी उम्मीद की आयु कम करते गए धीरे-धीरे।

 

एक वक्त आया जब लोग जयंती मना रहे थे उनकी 

उन्होंने कहा 79 का हो गया, 

अब जीने की इच्छा बची नहीं मुझमें 

यह दूसरी अक्तूबर 1947 की सुबह थी।

 

गाँधी देख रहे थे 

लोग मुख्तलिफ थे, देश उनका न था

हालाँकि आज़ादी की भोर सुहावन थी अभी 

लोग वे नहीं थे लेकिन जिनके लिए वे जिए और लड़े।

 

हत्यारे घूम रहे थे चारों तरफ 

कहीं से हत्यारे नजर नहीं आते थे वे

सीधे-साधे सफेदपोश लोग 

खास तरह की मासूमियत दिखती उनके चेहरों पर 

साथ-साथ आगे-पीछे चलते लोग।

 

गाँधी देख रहे थे 

अहिंसा के भभूत के भीतर 

हिंसा की चिनगी सुलग रही थी।

 

देख लिया था उन्होंने 

अहिंसक कोई न था 

वह भी नहीं जिसका नाम लेकर वे जिए और मरे।


वे देख रहे थे 

साथ घूमता कोई हत्या करेगा उनकी 

और दूसरे अनेक     दूसरों की।


वे देख रहे थे भविष्य  

उनकी जयंती मनाई जा रही थी डेढ़ सौवीं 

वैसे ही सफेदपोश सीधे-सरल लगते लोग

घूम रहे थे हर तरफ 

वे कहीं से हत्यारे नहीं लगते थे न बलात्कारी 

पर सबके भीतर मौजूद था एक हत्यारा 

एक मर्द एक बलात्कारी मौजूद था।

 

बलात्कारियों की रक्षा करने वाले 

अनेक दूसरे बलात्कारी थे उनसे बड़े 

रक्षक तंत्र था बलात्कारियों-हत्यारों का 

स्त्रियाँ उन्हें प्रिय थीं गोश्त की तरह 

हत्या प्रिय था स्वाद की तरह।

 

गाँधी देख रहे थे  

अपनी हत्या के ठीक पहले

देख रहे थे 

उनकी हत्या होगी बार-बार।


@ राकेशरेणु

(‘दोआबा’ अक्तूबर-दिसम्बर 2021 अंक से साभार)

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