अपनी लघु कथाओं, बू, खोल दो, ठंडा गोश्त और टोबा टेक सिंह से प्रसिद्ध हुए सआदत हसन मंटो (11 मई 1912 – 18 जनवरी 1955) को गुजरे हुए और आकाशवाणी के दिल्ली केन्द्र में काम किए हुए एक जमाना गुजर गया। पर अब भी उनके आकाशवाणी केन्द्र के कमरे के बारे में यहां के बहुत से मुलाजिमों को पता है। मंटो का कमरा पहली मंजिल पर नाटक विभाग में था। वे यहां 1940 से अगस्त 1942 के दरम्यान रहे। उनके साथ उर्दू के मशहूर अफसाना निगार कृश्न चंदर भी काम करते थे।
मंटो ने आकाणवाणी दिल्ली के लिए 110 नाटक लिखे। मंटो की आज पुण्यतिथि है। उनके लिखे एक नाटक ‘दस्तावेज’ को श्रोताओं ने खूब पसंद किया था। उन्होंने यहां पर रहते हुए कृष्ण चंदर के साथ बंजारा फिल्म की कहानी भी लिखी। जिसे सेठ जगत नारायण ने खऱीदा था।
सेठ जगत नारायण दिल्ली की बड़ी हस्ती हुआ करते थे। वे जगत,रीटज और नॉवेल्टीसिनेमा घरों के मालिक थे। लाला जगत नारायण सेठ का संबंध दिल्ली की खत्री बिरादरी से था। उनकी कटरा नील में हवेली थी! मंटो के एक जीवनीकार जगदीश चंदर वधावन कहते हैं कि “ मंटो को आकाशवाणी में 150रुपए माह पर नौकरी मिली थी। इससे पहले वे 60 रुपए महीने की नौकरी कर रहे थे।”
किसके साथ वक्त गुजरता था मंटो का
आप जानते हैं तीस हजारी के पास है सेंट स्टीफंस अस्पताल। इससे सटा है भैंरों मंदिर। ये भार्गव लेन पर है। इधर का 5 भार्गव लेन का घर कभी स्थायी अड्डा होता था सआदत हसन मंटो का। वे रोज ही तो यहां पर अपने मित्र कृश्न चंदर से गुफ्तुगू करने आया करते थे। ये बातें तब की हैं जब मंटो दिल्ली में रह रहे थे। उन दिनों मंटो और चंदर आकाशवाणी की उर्दू सेवा में काम करते थे।
तब आकाशवाणी का एक दफ्तर अंडरहिल रोड पर भी होता था। ये जगह भार्गव लेन से दो-तीन मील की ही दूरी पर है। मंटो मुंबई को छोड़कर दिल्ली आकाशवाणी में नौकरी करने आए तो पहला मसला छत का था। उनकी पहले ही दिन किशन चंदर से दोस्ती हो गई। कृश्न चंदर अपने नए दोस्त को अपने साथ अपने घर में ले आए। फिर मंटो इधर करीब दो हफ्ते तक रहे।
मोरी गेट में मंटो
सआदत हसन मंटो ने यहां नोकरी करते हुए मोरी गेट में एक घर किराए पर भी ले लिया। यहां उकी पत्नी भी आ गई। अब मंटो और कृश्न चंदर दिल्ली की खाक छानने लगे। दिल्ली में कुछ समय तक रहने के बाद मंटो फिर से बंबई लौट गए। कृश्न चंदर का मुंबई-दिल्ली आना जाना लगा रहा। मंटो बाद में जब भी दिल्ली आए तो 5 भार्गव लेन वाले घर में ही ठहरे। इसमें कृश्न चंदर की मां और छोटे भाई रहते थे। ये घर कृश्न चंदर के परिवार के पास 1990 तक रहा। बहरहाल, देश के विभाजन के बाद मंटो पाकिस्तान चले गए। वहां पर 1955 में उनकी मृत्यु हो गई।
मंटो की मौत से अवाक कृश्न चंदर चंदर ने तब लिखा-"जिस दिन मंटो से मेरी पहली मुलाक़ात हुई, उस रोज मैं दिल्ली में था। जिस रोज़ वह मरा है,उस रोज़ भी मैं दिल्ली में मौजूद हूं। उसी घर में हूं, जिसमें चौदह साल पहले वह मेरे साथ पंद्रह दिन के लिए रहा था। घर के बाहर वही बिजली का खंभा है, जिसके नीचे हम पहली बार मिले थे। वह ग़रीब साहित्यकार था। वह मंत्री न था कि कहीं झंडा उसके लिए झुकता। आज दिल्ली में मिर्जा ग़ालिब पिक्चर चल रही है। इसकी कहानी इसी दिल्ली में, मोरी गेट में बैठ कर मंटो ने लिखी थी। एक दिन हम मंटो की तस्वीर भी बनाएंगे और उससे लाखों रूपए कमायेंगे। यह मोरी गेट, जहां मंटो रहता था, यह वह जामा मस्जिद की सीढियां हैं, जहां हम कबाब खाते थे, यह उर्दू बाज़ार है। सब कुछ वही है, उसी तरह है । सब जगह उसी तरह काम हो रहा है। आल इंडिया रेडियो भी खुला है और उर्दू बाज़ार भी, क्योंकि मंटो एक बहुत मामूली आदमी था। वह ग़रीब साहित्यकार था। वह मंत्री न था कि कहीं झंडा उसके लिए झुकता।”
टोबा टेक सिंह का बिशन सिंह कहाँ
सआदत हसन मंटो कालजयी कहानी टोबा टेक सिंह के मुख्य पात्र बिशन सिंह को दिल्ली में देखना चाहेंगे ? मानसिक रूप से विक्षिप्त बिशन सिंह को देश के बंटवारे के चलते अपनी मिट्टी से दूर भेजा जा रहा था। ये उसे नामंजूर था। तो जो इंसान शारीरिक-मानसिक रूप से स्वस्थ है उसकी अपने घर को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़ने की पीड़ा किस तरह की होती होगी ? बिशन सिंह से मिलते-जुलते पात्र रोज मिलते हैं राजधानी के सब-रजिस्ट्रार के दफ्तरों में।
साउथ दिल्ली के एक सब-रजिस्ट्रार दफ्तर में लगभग 50 साल का इन्सान अपने आंसू पोँछ रहा है। उसके साथ पांच-छह कुलीन दिखने वाले उसके मित्र-संबंधी बैठे हैं। इनमें दो औरतें भी हैं। आप इनसे साहस जुटाकर इधर आने की वजह जानना चाहते हैं। आंसू पोँछने वाले इंसान से रोने की वजह पूछते हैं। तो उनमें से एक सज्जन बताते हैं,‘ हमने लाजपत नगर में अपने डैडी के बनाए घर को बेच दिया है। आज अपने घर के नए मालिक के साथ सेल डीड पर साइन करने के लिए आए हैं हम सब भाई-बहन।’ इनमें एक सुबक रहा है। पर आंखें सबकी नम हैं। अब इस ग्रुप की एक महिला कहने लगती है, ‘आज बहुत कठोर दिन है। आज हमारा उस घर से नाता टूट गया जिसे हमारे मम्मी-डैडी ने बनाया था। हमने कभी नहीं सोचा था कि हमारा घर बिकेगा।’ये कहते-कहते वो भी रोने लगती है। सारा माहौल गमगीन है।
गीता कालोनी सब-रजिस्ट्रार के दफ्तर में भी होता है प्रॉपर्टी की खरीद-फरोख्त का पंजीकरण। इधर हमेशा सन्नाटा पसरा रहता है भीड़-भाड़ के बावजूद। माहौल में उदासी है। अचानक से किसी के सुबकने की आवाज आपके कानों तक पहुंचती हैं। पांच-छह लोगों के एक समूह में एक इंसान को बाकी समझा रहे हैं। वह नाराज है। वह शख्स एक खास पेपर पर साइन करने से अंतिम क्षणों में इंकार करता है। ‘मैं नहीं करूंगा इस पेपर में साइन। तुम उस घर को बेच रहे हो जो बाऊ जी ने कितनी मेहनत से बनवाया था। मैं उस घर में ही रहूंगा’। उसके स्वर में पीड़ा और करुणा के मिले–जुले भाव हैं।
विवेक शुक्ला
नवभारत टाइम्स, 18 जनवरी, 2022
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