क़ोई अपना सा चेहरा देखने में
न रह पाया किसी भी आइने में
कहीं इतने जतन से उसको रक्खा
कि अब तकलीफ़ होती ढूँढ़ने में
ये तेरी ज़िंदगी मत पूछ सबसे
है कैसी मेरी दुलहन देखने में
बनायेगा भला कब कोई मूरत
लगा अब तक है मिट्टी गूँधने में
हुई पूजा चढ़ावे चढ़ चुके सब
मगन मन अब भी माला गूँथने में
बढ़ाता किस तरह से बात आगे
लगी इक उम्र उसको जानने में
सुखों के होने का मतलब अगर कुछ
तो उनकी धूप मिल कर तापने में
मिला जो भी तो उससे पूछा पानी
कटी तनहाई पानी पोंछने में
बहुत फैलायी ख़ुशबू अब हवा लग
मजूरों का पसीना सोखने में
मुहब्बत की नदी वो मुब्तला मैं
बस अपनी नेकियाँ ही डालने में
फ़क़त आखर अढ़ाई प्रेम के ये
लगा दी देर कितनी बोलने में
ख़ुदा का हाल भी है आशिक़ों सा
कभी कुछ भी न कहता सामने में
धड़कती चिट्ठियों को दिल में रखती
वफ़ा को शर्म उनको बाँचने में
मिली थी साथ की इक रात लेकिन
वो भी गुज़री मसहरी तानने में
हैं बिखरी हर तरफ़ बचपन सी ख़ुशियाँ
झिझक लेकिन है चुनने बीनने में
अकेले का न कोई सुख न दुख ही
तो फिर क्या हर्ज मिल कर बाँटने में
है ये बाज़ार देगा मोल में जो
वो ले लेगा वापस तोलने में
कभी मिलता जो बीता वक़्त फिर से
तो लगता वक़्त कितना बीतने में
बहुत कुछ जोड़ते अब लोग पहले
किसी के साथ रिश्ता जोड़ने में
कोई पहचानता परछाईं अपनी
नये घर के पुराने आइने में
है पायी कामयाबी किसने बोलो
झुकी पलकों से अस्मत ढाँपने में
ये कैसी झीनी झीनी बीनी चादर
बिछाने में बने ना ओढ़ने में
निकल आये हैं फिर से पाँव बाहर
कफ़न को अपने सर तक खींचने में
वही कहना उसे ही लिखना 'अनिमेष'
जो मानीख़ेज़ हो हर मायने में
💔
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