जैसे जैसे कथावाचकों के अहो-महो वाले आयोजनों का प्रभाव बढ़ा, वैसे वैसे उत्तरी भारत से घरों में कथा-कहानियां सुनाने की परंपरा भी जाने लगी। इसके अपने नुकसान होने थे, वो हुए भी। इससे सबसे पहले जो नुकसान हुआ वो ये हुआ कि कहानियों से जो नैतिक सन्देश जाता था, उसके बारे में किसी ने पूछा ही नहीं। दूसरा कि आप अगर शुरूआती बातें नहीं जानते तो आगे के प्रमेय-सिद्धांत भी समझ में नहीं आयेंगे। इसका एक अच्छा सा उदाहरण है “फल श्रुति”। अचानक अगर पूछ लिया जाए तो थोड़ा सोचकर लोग बता देंगे की इसका मोटे तौर पर अर्थ “सुनने का फल” होगा। अब सवाल है कि सिर्फ सुन लेने का कैसा फल? या सिर्फ किसी की बात, कोई कथा-कहानी सुन लेने का कोई फल क्यों मिले?
इसके जवाब में सबसे पहला तो होता है “मनोरंजन”। अगर कथा मनोरंजक न हो तो आप उसे पूरी सुनेंगे ही क्यों? बीच में ही छोड़कर कुछ और करने, व्हाट्स एप्प या सोशल मीडिया चलाने के, टीवी देख लेने के, कितने ही विकल्प तो हैं ही। दूसरे फायदे के लिए हमें फिर से एक कथा ही देखनी होती है। ये कथा एक कामचोर व्यक्ति की है जो कभी कहीं किसी गाँव में रहता था। कामचोर था तो रोटी-दाल का प्रबंध कैसे होता? तो थोड़े ही दिनों में इस आदमी ने चोरी करना शुरू किया। रात गए किसी वक्त वो निकलता और आस पास के गाँव में किसी खेत से कुछ अनाज काट लाता। जीवन ऐसे ही चलता रह। इस चोर का विवाह हुआ, एक बच्चा भी हुआ। बच्चा भी पिता जैसा, मुफ्त के माल के चक्कर में पड़ गया।
गाँव में ही एक मंदिर था। वहाँ पंडित जी कथा सुनाने के बाद बताशे बांटते थे। शाम की आरती के बाद बच्चा रोज वहाँ जाकर बैठ जाता और बताशे के लालच में पूरी कथा भी सुन आता। बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो चोर ने सोचा इसे अपना काम भी सिखा दिया जाए। एक रात वो बच्चे को साथ लिए चला। एक खेत के पास पहुंचकर चोर ने इधर उधर देखा। जब कोई रखवाला नहीं दिता तो वो बेटे से नजर रखने को कहकर फसल काटने में जुट गया। अचानक बच्चा बोला, पिताजी आपने एक ओर तो देखा ही नहीं। घबराकर चोर ने अपना झोला और हंसिया हथौड़ा फेंका। जल्दी से वो बेटे के पास आया और बोला, क्या हुआ? कहीं से कोई आता हुआ दिखता है क्या?
बेटे ने कहा, अरे नहीं पिताजी! आपने सब तरफ देखा मगर ऊपर की ओर तो देखा ही नहीं! ईश्वर तो अभी भी आपको देख ही रहे हैं। बच्चे ने रोज मंदिर की कथाओं में सुन रखा था कि ईश्वर ऊपर से सभी के कर्म देखते रहते हैं। चोर हिचकिचाया, मगर उसकी समझ में बात आ गयी थी। जब कोई नहीं देखता, तो भी आप स्वयं को तो देखते ही हैं। इसलिए आपकी हरकत सबकी नजरों से छुप गयी ऐसा कभी नहीं होता। अगर “अहं ब्रह्मास्मि” के सिद्धांत को मान लिया जाए, जिसके लिए मंसूर-सरमद जैसे लोग काट दिए गए, तो आपने स्वयं को देखा, यानी ईश्वर ने भी देख लिया है। केवल सुनने से जो असर बेटे पर हुआ था, वो इस कथा में फैलकर चोर पर भी अपना प्रभाव डालता है। इसे “फल श्रुति” कहते हैं।
आप जो बार बार सुनते हैं, देखते हैं, उसका आपके जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है। अगर समाचारों में बैंक डकैतों का पकड़ा जाना पढ़ा होगा, तो ये भी पढ़ा होगा कि कई बार ये लोग फिल्मों से प्रभावित होते हैं। उसकी नक़ल में ये डाका डालने, या ऐसे दूसरे अपराध करने निकले थे। पहले देखा-सुना, फिर विचारों में वो आया, फिर वो कर्म में उतरा और अंततः कर्म का फल भी भोगना पड़ा। इसे भगवद्गीता के हिसाब से देखें तो दूसरे अध्याय में इसपर जरा सी चर्चा है –
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात् संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते।।2.62
क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63
इसका अर्थ है - विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
विषयों के बारे में जानकारी सुनने-देखने से ही आएगी। भारत में रहने वाले किसी व्यक्ति का चमगादड़ या कुत्ता खाने का मन करे, इसकी संभावना कम है। चीन में जिन लोगों ने ऐसे जीव चख रखे हों, उनको पता है की इनका स्वाद कैसा है, उनका मन कर सकता है। किसी जापानी ने रसगुल्ले या पूड़ी का नाम सुना ही नहीं, तो उसका खाने का मन क्यों करेगा? भारत में प्रेमचंद अपनी कहानी “कफ़न” में लिख जाते हैं कि उसके मुख्य पात्र किसी भोज में खायी पूड़ी को याद कर रहे थे। उसे सुनने वाला सोच सकता है कि ये क्या होगा? “फल श्रुति” भी इसी तरह काम करती है।
इसे लेकर सोशल मीडिया पर चलने वाला मजाक भी आपने खूब देखा है। कई बार आप “इसे पढ़कर डिलीट करने वाले का ये व्यापार में भारी नुकसान हुआ, इसे दस लोगों को भेजने वाले को नौकरी में सफलता मिली” जैसे वाक्य आप मजाक में पढ़ चुके हैं। इसे आप “हिन्दूफोबिया” की श्रेणी में डाल सकते हैं। ऐसे मजाक करने के लिए किसी को कोई सजा नहीं मिलती मगर तुलनात्मक रूप से “हालेलुइया” मजाकिया लिहाज में कहने के लिए तो हृतिक रौशन भी माफ़ी मांग चुके हैं! कभी जब “फल श्रुति” के बारे में सोचिये तो “हिन्दूफोबिया” के बारे में भी सोच लीजियेगा।
बाकी घरों में कथा न कहने के कारण बच्चों को पता नहीं होता कि अयोध्या किसी सरयू नाम की नदी के किनारे है, या वाराणसी, गंगा के अलावा किन्ही वरुणा और असी जैसी नदियों के किनारे भी होती है। हो सके तो कथाओं की परंपरा दोबारा जीवित करने पर भी सोचिये!
आयातित विचारधारा के प्रवर्तकों की जीत का एक विकट उदाहरण अभी अभी नजर आ गया | आपको भी देखना हो तो चलिए एक छोटे से प्रश्न का जवाब सोचिये | बताइये राम कहाँ के राजा थे ?
अयोध्या सोच लिया जवाब में ?
बहुत अच्छे ! अब रामचरितमानस का एक सुना सुनाया सा दोहा याद कीजिये “प्रविसी नगर कीजे सब काजा | ह्रदय राखी कोसलपुर राजा ||” ये जो कौशल पूरी तक के राजा को सिर्फ उनकी राजधानी अयोध्या तक समेटा ना, यही आयातित विचारधारा की जीत है |
बाकी कुछ तीस मार खान जो वर्तनी के सुधार या मुझे पता था जैसा कुछ सोच रहे हैं उनसे निवेदन है कि एक बार घर के अन्य सदस्यों, आस पास बैठे लोगों से पूछिए यही सवाल | आप अपने “ज्ञान” को कहाँ तक फैला पाए ?
सन 1920 के दौर में जब बंदूकों की सलामी वाले राजवाड़े होते थे तब झाला वंश के राजपूत तेरह बंदूकों की सलामी वाले धांगध्रा पर शासन करते थे। वो ग्यारह बंदूकों की सलामी वाले वांकानेर और नौ बंदूकों की सलामी वाले लिम्बडी और वढवाण पर भी शासन करते थे। कुछ बिना सलामी वाले रजवाड़े भी उनके शासन में थे। अगर आप राजस्थान के नहीं हैं तो हो सकता है आपने झाला राजपूतों के बारे में ना भी सुना हो। इसकी एक बड़ी वजह इतिहास को लिखने का अंग्रेजों और उनके टुकड़ाखोरों का तरीका भी रहा।
राज्य और इलाके के सही नाम के बदले, वो नाम बिगाड़ने में ज्यादा रूचि रखते थे। वो सिर्फ राजधानी के नाम से इलाकों को पहचानते थे, और यही परंपरा उन्होंने शिक्षा व्यवस्था में भी डाली। इसे समझना है तो जरा सोच के बताइये राम कहाँ के राजा थे ? अयोध्या कहा क्या ! वो तो राम की राजधानी थी ना, राज्य-देश कौन सा था जहाँ के राजा थे, वो पूछा है। राज्य के बदले राजधानी क्या होता है वो समझ लिया तो राम के उच्चारण को रामा, कृष्ण का कृष्णा, गणेश का गनेशा, या ग्रंथों को महाभारता-रामायणा करने में भी देख लीजियेगा।
देश को समेट कर सिर्फ राजधानी कर देने से एक बड़े से इलाके का इतिहास भूल कर सिर्फ छोटी सी राजधानी की बात होती रह जाती है। इतिहास के कई हिस्से लोग भूलने लगते हैं, समय के साथ आक्रमणकारी स्थानीय सभ्यता को हीन साबित करने में कामयाब भी हो जाते हैं। जैसे राजस्थान के इलाकों के लोग बावड़ी और जल संरक्षण के अन्य तरीके भूलने लगे। प्रसिद्ध रानी की वाव भी कई साल बाद खुदाई में मिली। वैसे ही झाला राजपूत भी लिखित इतिहास से गायब तो हुए लेकिन वो कहानियों में बाकी रह गए। युद्ध में किसी राजा का मुकुट उसके किसी सरदार ने पहन कर अपने राजा को बचाया और शत्रुओं को धोखा दिया हो ऐसी कहानी सुनी है क्या ?
ये जो कहानी ज्यादातर लोगों ने सुनी होती है वो झाला मन्ना की कहानी है। झाला मानसिंह (या झाला मन्ना) बड़ी सादड़ी के राजपूत परिवार से थे। कभी महाराणा रायमल ने ये जागीर झाला मन्ना के पूर्वजों – श्री अज्जा और श्री सज्जा को दी थी। हल्दीघाटी की लड़ाई से ठीक पहले गोगुन्दा में महाराणा प्रताप की युद्ध परिषद में (1576) में झाला मन्ना शामिल हुए थे। युद्ध के दौरान जब महाराणा प्रताप ने सलीम (बाद का जहाँगीर) पर आक्रमण किया तो झाला मन्ना उनके करीब ही थे।
चेतक के काफी घायल हो जाने पर जब मुग़ल फ़ौज के कई सिपाहियों ने महाराणा प्रताप के चारों ओर घेरा डालना शुरू किया तो झाला मन्ना आगे बढ़े। उन्होंने महाराणा प्रताप के सर से राज चिन्ह और मुकुट लेकर अपने सर पर धारण कर लिया और महाराणा को युद्ध क्षेत्र से निकल जाने कहा। युक्ति काम कर गई और शत्रुओं ने झाला मन्ना को महाराणा प्रताप समझकर उनपर हमला कर दिया। भीषण युद्ध करते झाला मन्ना वीरगति को प्राप्त हुए।
नहीं, झाला मन्ना कोई अस्सी किलो का भाला नहीं चलाते थे, उनकी तलवार भी पच्चीस किलो की नहीं थी। वीरगति को प्राप्त होने से पहले झाला मन्ना मुग़ल सेना को पूर्व की ओर पीछे धकेल चुके थे। उनकी समझदारी की वजह से महाराणा प्रताप बाद में मेवाड़ को स्वतंत्र करवा पाए। झाला मन्ना स्वामिभक्ति और बलिदान के साथ साथ मुश्किल परिस्थितियों में भी समझदारी ना भूलने के लिए याद किये जाते हैं। उनकी याद में पांच रुपये के पांच लाख स्टैम्प्स हाल में ही जारी किये गए हैं।
और अंत में एक कहानी - आज की हमारी कहानी बिलकुल जानी पहचानी सी है। हो सकता है चिड़िया, गोबर और बिल्ली की इस कहानी को आपने पहले भी कई बार पढ़ा हो। इस कहानी में एक चिड़िया होती है। मौज-मस्ती करने वाली प्रसन्न रहने वाली चिड़िया थी। चहकती और इस डाली से उस डाली फुदकती रहती। कोई चिंता-फ़िक्र नहीं! लेकिन वसंत, गर्मी, बरसात का ही मौसम तो हमेशा रहता नहीं। जाड़े का मौसम भी आता है। तो जाड़ा आया और चिड़िया ने अपने बचाव के लिए न तो कोई बढ़िया घोंसला बनाया था, न ही खाने-पीने का कोई इंतजाम किया था।
बर्फ पड़ने लगी और चिड़िया उड़कर कहीं भाग भी नहीं पायी। आखिर ठण्ड से एक दिन वो बेहोश होकर पेड़ से नीचे गिर पड़ी। उसी वक्त वहाँ से एक गाय गुजर रही थी। उसने गिरी हुई चिड़िया पर कोई ध्यान नहीं दिया। उल्टा चिड़िया पर गोबर करके वो आगे चलती बनी। गोबर गर्म था, और उसकी गर्मी से चिड़िया की जान में जान आई। उसने अपने सर को झटका देकर गोबर से बाहर निकाला और जैसी कि उसकी आदत थी, लगी चहचहाने! उसकी आवाज एक बिल्ली ने सुनी और वो आवाज का पीछा करती गोबर तक आ पहुंची। उसने चिड़िया को गोबर में फंसा देखा तो उसे निकाला, और चाट-पोंछ कर उसे साफ़ करके चट कर गयी!
वैसे तो इस छोटी सी कहानी से हमें कई शिक्षाएं मिलती हैं। जैसे कि –
1. आपपर गोबर करने वाला जरूरी नहीं कि आपका शत्रु हो।
2. जो आपको गोबर से निकाल कर साफ़-सुथरा कर रहा है, वो मित्र ही हो ऐसा भी जरूरी नहीं।
3. जब गले तक गोबर में फंसे हों, तो गाने-चहचहाने के बदले अपनी चोंच बंद रखनी चाहिए।
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