शुक्रवार, 28 जनवरी 2022

उद्भ्रांत एक जुझारु व्‍यक्तित्‍व / रामधनी द्विवेदी


आज कानपुर छोडने के बाद उद्भ्रांत जी से मेरी तीस साल बाद मुलाकात हुई थी। वह भी अचानक। मैं बरेली जागरण से नोएडा आ गया था। थोड़े ही दिन हुए थे कि एक दिन लखनऊ से जनसंदेश टाइम्‍स के संपादक सुभाष राय  का फोन आया कि लीजिए अपने एक पुराने मित्र से बात कीजिए। आवाज से पहचानिए कि ये कौन हैं,नाम नहीं बताउंगा। मैंने फोन ले लिया और उधर से फोन करने वाले ने कहा- पंडित जी पहचाना। फिर मेरी झिझक समझते हुए कहा कि मैं उद्भ्रांत बोल रहा हूं। उद्भ्रांत जी से आज तक  बरेली छोड़ने के बाद संपर्क नहीं था। मैं इलाहाबाद, लखनऊ और बरेली होते हुए दिल्‍ली आ गया था और जागरण नोएडा में कार्यरत था और वे कई जगह अनेक तरह की नौकरियां करने के साथ ही अपने रचनाकर्म में लगे हुए दूरदर्शन के महानिदेशक  पद से रिटायर होने के बाद नोएडा सेक्‍टर 51के केंद्रीय विहार सोसायटी में रह रहे थे।


 उनसे बात कर बहुत ही अच्‍छा लगा और पुरानी स्‍मृतियां सजीव हो गईं। वह बोले कि नोएडा लौटने के बाद आपसे मिलता हूं। उस दिन जनसंदेश टाइम्‍स में मुद्रा राक्षस जी की अध्‍यक्षता में उद्भ्रांत जी का एकल काव्‍य पाठ हुआ। शहर के प्रमुख साहित्‍यकार उपस्थित थे और दूसरे दिन के अखबार में इस काव्‍यपाठ की खबर छाई हुई थी। इस फोन वार्ता के थोड़े दिन बाद ही वह जागरण के नोएडा कार्यालय में थे। काफी देर बातचीत हुई। पुराने मित्रों के हाल चाल पूछे गए। और इस तरह लगभग 30 साल पहले टूटा संपर्क पुन: कायम हुआ। तब से आज तक उनसे बराबर संपर्क बना रहता है। फोन पर लंबी बातचीत होती रहती है,सामान्‍य हाल चाल के साथ ही उनकी नई रचनाओं पर भी बातचीत होती है। लगभग चार साल पहले 2017 में उन्‍होंने अपनी छोटी बेटी की शादी नोएडा सेक्‍टर 37 के सनातनधर्म मंदिर से की थी। मुझे निमंत्रित किया लेकिन उसी दिन किसी अन्‍य कार्य से बनारस जाना था। मैं उस शादी में सम्मिलित हुआ। उस शादी में दोनों परिवारों के अलावा मैं ही बाहरी व्‍यक्ति था। शाम को प्रीति भोज में शामिल नहीं हो पाया क्‍यों कि मुझे रात में ट्रेन पकड़नी थी। 

उद्भ्रांत बिलकुल नहीं बदले हैं। जैसा 1975-77 में आज कानपुर में काम करते समय थे,वैसे ही आज हैं। वह बोली, वही तेवर, वही या यूं कहे पहले से अधिक सक्रियता। उनका रूप रंग भी वही है। मुझे लगता है उनके शरीर का वजन भी 45 साल पहले वाला ही है,बस बाल कुछ कम हो गए हैं, और चेहरे पर वार्धक्‍य दिखता है। बातचीत में वही बेबाकपन है। जो मन करता  है,बोल देते हैं, न कोई लाग-लपेट और न कोई दुराव- लगाव। यदि कोई बात नहीं पसंद है तो उसपर तत्‍काल अपनी प्रतिक्रिया भी व्‍यक्‍त कर देने का उनका स्‍वभाव आज भी नहीं बदला है। अभी कल ही बात करते समय मैने सुझाव दिया कि आप बहुत परिपक्‍व रचनाकार हैं। आपकी रचनाओं की काफी ग्राह्यता है और लोग उसके अनन्‍य प्रशंसक हैं।यदि कोई आपके बारे में अनुचित कहता है तो भी उसे क्षमा कर दिया करें। इससे आप और बड़े होंगे। उनका कहना था कि आपकी बात सही है लेकिन मेरा स्‍वभाव ही ऐसा है कि गलत बात बर्दाश्‍त नहीं होती और मेरी प्रतिक्रिया आ ही जाती है। 

मैं जब आज कानपुर में जनरल डेस्‍क का इंचार्ज था तो उद्भ्रांत मेरी ही शिफ्ट में थे। क्‍या कहने उनकी अदा के। बड़े बड़े बाल देवानंद स्‍टाइल में काढ़े रहते और बात करते करते उन्‍हें या तो पीछे झटकते रहते या उनमें उंगलियां फेरते रहते। मेरी शिफ्ट के जो तेज तर्रार लोग थे, उनमें एक उद्भ्रांत भी थे। आज मे पहले वह रिपोर्टर के रूप में भर्ती हुए थे। उन्‍हें श्रमिक संगठन और श्रमिक गतिविधियों की बीट मिली थी। चूंकि कानपुर उद्योग बहुल शहर था,इसलिए उन दिनों वहां श्रमिक गतिविधियां अधिक हेाती थीं। आज ने श्रमिकों के रूप में अपना नया पाठक वर्ग तलाशा और उसकी बीट अलग कर एक फुलटाइम रिपोर्टर तैनात कर दिया। उद्भ्रांत अपनी बीट में जी जान से जुटे रहते। आज श्रमिकों और उद्योग जगत में अपनी पहचान बनाने लगा। उनका इनसे मिलिए कॉलम बहुत पसंद किया जाने लगा। उन्‍होंने कई अच्‍छे इंटरव्‍यू भी किए। फिर उनकी जब शादी हो गई तो उन्‍हें मेरे साथ जनरल डेस्‍क पर कर दिया गया। जनरल डेस्‍क पर अंग्रेजी के तारों का अनुवाद ही मुख्‍य काम होता और  उसमें वह दक्ष थे। उनकी चारुचंद्र त्रिपाठी से खूब पटती लेकिन ज्ञानेंद्र जी को वह चिकोटी काटने से बाज नहीं आते। जब मैं आज से इलाहाबाद अमृत प्रभात में चला गया तो एक साल बाद ही वह भी आज छोड़ गए। 

पिछले दिनों मैने उनकी जीवनी के पहले खंड को पढ़ा। उससे उनके बारे में बहुत सी बातें पता चलीं और उनमें सबसे महत्‍वपूर्ण बात थी कि वह बचपन से ही अपने मन की करते और आज भी उनका यह स्‍वभाव बना हुआ। समझौता उनके शब्‍दकोश में नहीं दिखता। जीवनी का प्रथम भाग पत्रकारिता में आने तक हैं लेकिन उसे पढ़ने से पता चलता है कि युवा उद्भ्रांत में कितने बड़े वट वृक्ष की बीज दबा हुआ था। यह आत्‍म कथा भी बहुत बेबाक पन से लिखी गई है। न कुछ छिपाया है न अतिशयोक्ति है। इसे पढ़ने में उपन्‍यास जैसा आनंद आता है। मैने इसकी समीक्षा भी लिखी जो दैनिक जागरण में छपी। अभी दूसiरा खंड पूरा हुआ है और शीघ्र ही प्रकाशित होने वाला है। 

उद्भ्रांत की रचनाधर्मिता अब भी किसी युवा को चुनौती देती है। हर साल  दो तीन किताबें पाठकों को दे ही देते हैं। ईश्‍वर उन्‍हें स्‍वस्‍थ रखे और निरंतर सक्रिय भी। अभी उनसे बहुत उम्‍मीदें हैं। 

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रामधनी द्विवेदी 

9560798111 

ऑलिव 504 

गुलमोहर रेजिडेंसी अहिंसा खंड दो 

इंदिरापुरम, गाजियाबाद उप्र

उद्भ्रांत: वरिष्ठ पत्रकार रामधनी द्विवेदी का संस्मरण)

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