🌺 चार दशक का याराना 🌺 रिश्तों को निभाना और उनमें समय-समय पर नए प्राण फूंकना कोई मेरे अलबेले मित्र अनामी शरण बबल [ Anami Sharan Babal ] से सीखे.
बबल जी की विशिष्टता है, प्रेम करने का उनका अपना अंदाज. अंतर्धान हों तो महीनों क्या, वर्षों तक कहीं अता-पता लगाना भी मुश्किल ; लेकिन अचानक जब प्रकट हो जाएं तो चमत्कृत करते हुए यह अनुभूति पुनर्नव कर ही डालते हैं कि भेंट-बात भले नियमित न हो, प्रेम की मूल प्रगाढ़ता कहीं से ज़रा भी अनियमित नहीं है...🌺 वह मेरे अब से कोई चार दशक पहले उस दौर के मित्र हैं जब वे बिहार के औरंगाबाद में थे और मैं पलामू में. दोनों ही लेखक-मिजाज़ के नए-नए पत्रकार.
इसे विरल ही संयोग तो कहेंगे कि किसी को पत्रकारिता शुरू करने का मौका सीधे संपादक-पद के साथ हासिल हो. और तो और, पलामू जैसे पिछड़े इलाके में काम करते हुए लगे हाथ कुछ ही महीनों बाद प्रधानमन्त्री इंदिरा गांधी जैसी शख्सीयत से प्रत्यक्ष साक्षात्कार का अवसर भी. इसे इन पंक्तियों के लेखक का सौभाग्य नहीं तो और क्या कहेंगे आप ?
वह जिलों में अठपेज़ी साप्ताहिक अख़बारों का दौर था. बात अस्सी के दशक के शुरुआती दौर की है. 'पलामू दर्शन ' का प्रकाशन डाल्टनगंज में अस्पताल रोड के सत्यनारायण प्रेस से शुरू हुआ था. मोती लाल साहू प्रकाशक और कवि सिद्धेश्वरनाथ ओंकार संपादक. साहित्य-प्रेम ने हमें ओंकार जी के निकट पहुंचाया और एक तात्कालिक संयोग ने एक दिन अचानक अखबार के संपादक-पद तक. भूमिका स्वयं ओंकार जी की ही, बल्कि स्नेहिल दबाव भी. दरअसल वे क्रांतिकारी तेवर के कवि थे और जीएलए कालेज के पुस्तकालय के प्रभारी . उनके लिखे-पढ़े से बड़े-बड़ों को खरोच पहुंचने और इससे उनके उत्पीड़न का सिलसिला चलता रहता था.
एक कहानी के कारण तत्कालीन जिलाधिकारी के कोप से वे पहले सरकारी नौकरी खो चुके थे. इस बीच कालेज में अब उनके अख़बारी काम को लेकर तीर ताना गया तो उन्होंने मुझे पूरी बात बताते हुए संपादक-पद संभालने का आदेश किया. इधर अनुभव शून्य लेकिन हालात ना कहने के थे नहीं, लिहाज़ा तय हुआ कि वे सहयोग करते रहेंगे और पारंगत करके ही अलग होंगे. बहरहाल, यह प्रसंग बड़ा खिंचेगा, इस पर चर्चा फिर कभी.
तो, बबल से मित्रता 1982-83 के दौर की है, औरंगाबाद व पलामू ज़िले परस्पर सटे हुए भी हैं [ लेकिन अब पहला बिहार तो दूसरा झारखंड के हिस्से में ] लेकिन मुलाक़ात कभी नहीं. बबल पलामू अपने चाचा मोहन बाबू के यहां आते. मोहन बाबू को हमलोग भइया कहते. उनके माध्यम से बबल के आने की पूर्वसूचना मिल जाती लेकिन बाद में किसी दिन यह जानकारी भी आती कि आए थे लेकिन जल्दबाजी थी लौट भी गए.
पलामू में रहने के दौरान से लेकर अब तक, बबल से मुलाक़ात कई बार होते-होते रह गई. पिछली बार ऐसा हुआ 2018 के दिल्ली-प्रवास में, इस बार तो ज़माने या साइंस की नेमत से त्वरित संवाद के लिए मोबाइल फोन भी हाथ में हाज़िर लेकिन बातचीत होती रह गई.
हम हफ़्ता भर तक संसद-भवन से लेकर इंडिया इंटरनेशनल, लाल किला या तिलकनगर-कनॉट प्लेस-दरियागंज से लेकर नोएडा-गाजियाबाद-गुड़गांव तक खंगाल चुके लेकिन बबल से मुलाकात कहीं संभव नहीं की जा सकी.
बनारस लौट आने पर उन्होंने अपने ही लहज़े में अगली बार हर हाल में मुलाक़ात सुनिश्चित करने का वादा फिर दोहराया. ह्वाट्सएप है तो अब संपर्कों का अंतराल वैसा नहीं तनता. संदेश जगाते-कोंचते-जोड़ते चलते हैं. इस बीच 09 जनवरी 2022 को उन्होंने 1998 या 99 की एक पेपर कटिंग भेजी है. यह मेरे प्रथम उपन्यास ' धपेल ' [1998, राजकमल प्रकाशन] पर उनकी लिखी समीक्षा है. 22-23 वर्ष पूर्व की लिखी-छपी.
इन पंक्तियों के लेखक के लिए तो छपी हुई अपनी पुस्तक तक मौके पर सहेजना-खोजना सहज नहीं, लेकिन उसी का यह दोस्त ऐसा अजीज़ कि जो दो दशक से एक ज़रा-सी कतरन तक कलेजे से ऐसे चिपकाए बैठा है जैसे कोई स्वर्ण-चिह्न.... क्या यह प्रेम संसार की किसी भी बेशकीमती चीज़ पर हज़ार गुणा भारी नहीं ? जिसके पास ऐसा दोस्त हो, उसे और क्या चाहिए...🌺🌺🌺🌺🌺
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