1// श्रद्धा की अधिकारी
भोली है, वह सुंदर है, वह प्यारी है।
सृष्टि का उपहार तो सचमुच नारी है।।
जिसे चाहती पूर्ण समर्पण तक जाती।
सर्वोत्तम प्राणी वह कितनी न्यारी है।।
बनकर बहन बलैया लेती, अद्भुत है।
जन-जन कण-कण'मां'तेरा आभारी है।।
कुलद्वय की मर्यादा का रक्षण करती।
अनुपम स्वार्थहीन,उसकी बलिहारी है।।
दुनिया का इतिहास , रक्तरंजित उससे।
फिर भी भविष्य की पूरी जिम्मेदारी है।।
कुर्बानी -लाचारी -शौर्य कहानी से।
पाषाणों पर अंकित कारगुजारी है।।
व्यभिचारी सड़कों पर छुट्टा घूम रहे।
बेशर्मों ने की दावा , सरकारी है।।
आडंबर भयमुक्त समाज बताता है।
वो दलाल है, झूठा है , व्यापारी है।।
उसकी ममता के आगे दुनिया झुकती।
त्यागमूर्ति वह,श्रद्धा की अधिकारी है।।......
"अनंग "
: " छिपुली लेकर दौड़ा है "
माई-माई कहकर बेटा , छिपुली लेकर दौड़ा है।
कई जून के बाद आज , चूल्हे में रोटी जोड़ा है।।
चूल्हे की रोटी का स्वाद गजब होता है,क्या होगा।
दो रोटी में डेढ़ खा गया , आधी ही बस छोड़ा है।।
भूख मिटाकर बच्चे ने,हंस मां को गले लगाया जब।
आंसू छलक उठे वह भूली,थाली में तो थोड़ा है।।
बच्चा भूख मिटाये कैसे,मां को काम नहीं मिलता।
घर का मालिक कई वर्ष से , तड़ीपार भगोड़ा है।।
बड़का दुआर के बाबूजी ही,अबकी बार विधायक हैं।
उन्हें फ़िक्र अब क्या करनी,हाथों में चाय पकौड़ा है।।
सभी पड़ोसी उसी तरह के , आंसू का सैलाब यहां।
सावधान सत्ता वालों , मृगनयनी हाथ हथोड़ा है।।
वृक्ष की तरह घर उसके, दिन -रात बड़े होते जाते।
खूनी लोग चैन कर रहे , हाथ व्हिस्की कौड़ा है।।..
."अनंग "
"मैं फिर आऊंगा"
बादल आज भींगाने आया।
दिल की प्यास बुझाने आया।।
सूख रही फसलों को सींचा।
मन में प्रीत बढ़ाने आया।।
सींच दिया उसने घर आंगन।
रोम - रोम महकाने आया।।
अगर-मगर सब मौन हो गए।
डगर-डगर पिघलाने आया।।
सोच रहा है काम हो गया।
लेकिन प्यास बढ़ाने आया।।
क्यारी को बूंदों से भरकर।
सुंदर सुमन खिलाने आया।।
प्यास मिटाकर भूख बढ़ाकर।
अंदर से बहलाने आया।।
खनखन छनछन टनटन कनकन।
नव- संगीत सुनाने आया।।
गहरी निद्रा में छू -छूकर।
मन के भाव जगाने आया।।
आया हूं मैं फिर आऊंगा।
यह विश्वास जमाने आया।।.......
.." अनंग "
: "स्वाधीन करेगा कौन यहां"
जंजीरों में मेधावी जकड़े , दानव ठेकेदार है।
शिक्षा को व्यवसाय बनाकर,बेच रही सरकार है।।
भारत ज्ञान-भूमि कहलाया,भूमंडल पर सदियों से।
उसी ज्ञान -मंदिर में आज चरम पर भ्रष्टाचार है।।
शिक्षक बने पुजारी कैसे ,विद्या-मंदिर चोरों का।
चूरन फांक सांस ले रहा , फंसा हुआ मझधार है।।
धन से जिनका रिश्ता है,वह विद्या-मंदिर का मालिक।
डिग्री का इन सभी दुकानों में , होता व्यापार है।।
रोज मान्यता देते हैं वे , रेवड़ी बांट रहे जैसे।
मानक को ठेंगा दिखलाते,रिश्वत का बाजार है।।
चोर-लुटेरे नहीं लजाते, महामना की तुलना में।
पढ़े-लिखे लोगों का शोषण,करता एक गंवार है।।
प्रतिपूर्ति में अरबों रुपए का ,षडयंत्र घोटाला है।
काला धन सफेद करने का,बहुत बड़ा औजार है।।
तय था जितना शिक्षा पर व्यय,आधा भी तो नहीं किया।
'कर' लेने का इनका फिर, कैसे बनता आधार।।
इतने व्यापक स्तर पर क्यों,मॉल खुल रहे डिग्री के।
कोठे पर जा बैठी शिक्षा,रोज हुआ व्यभिचार है।।
ज्ञान और गुरु दोनों को, स्वाधीन करेगा कौन यहां।
महासभा में जाकर बैठा , इन सबका सरदार है।।
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