सोमवार, 17 जनवरी 2022

अर्चना श्रीवास्तव,( मलेशिया) की कुछ कविताएं

--  ('तपस्या'




तपस्या से तपस्वी, साधना से साधक


है ऊंच कोटि के मुहावरे जो 


आज भी प्रासंगिक है


कल भी दैत्य-दानवों के विरुद्ध


 अडिग-शाश्वत होने का छिडा


 एकल अभियान था


आज  भी अंत-बाह्य उपस्थित, 


संकट एकसमान है


सांस्कृतिक अतिक्रमण का 


मौजूद अभेद्य-घातक हथियार हैं


लालच, भय,दबाव के डंक मारता बाजारवाद है


भीड से तन्हाई तक


वैमनस्य से प्रेम तक


स्वार्थ से परमार्थ तक


प्रगतिशीलता से पारंपारिकता तक


सत्य-मिथ्या और न्याय-अन्याय के बीच मचा


निरंतर अंदरुनी कोहराम है


गली-मुहल्ले मे ठनी प्रतिस्पर्धा का गलाफांस है


 है चुनौती अति गंभीर तमाम 


द्वंद-हामला के मध्य 


 संकल्पित रह अचल-अटल ,


एकाग्र कर्मयोगी हो ....


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@   ((2))



-"'इतिहास"'


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कबतक ढोयेंगे अतीत के काले-कलंकित खंडों को

छल-प्रपंच के भ्रामक तथ्यों और निरर्थक दांवों को

आओ मिलकर पुनः पडताल करें

अपने कुंठा और ग्लानि की आहूति देकर

स्वाभिमान की उज्ज्वल अवधारणा वरण कर

स्वर्णिम इतिहास का पुनुरूत्थान-नवनिर्माण करें....।


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 कहानियां-जीवनियाँ वहीं ग्राह्य-माननीय हैं

जो देशप्रेम-मातृभूमि के लिए समर्पण सीखाये

अपने विरासत और धरोहर का संरक्षक बनाये

सनातनी संस्कृति-परंपरा और मानकों पर टिककर

देश के उपलब्धियों के नित्य नये कीर्तिमान सजायें

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जिन पन्नों से क्रुरता-वहशीपन का विवरण पडा 

तानाशाही के रक्तरंजित विभत्स चित्रण भरा

प्रण करें उन्हें मिटाने के अपने स्मृतियों से

मानवता के मुख के कालिख ,शर्मनाक तारीखों कों

जिन्हें पुनः दुहराने की न कोई साजिश करे..

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वेद-पुराण, रामायण-उपनिषद का ज्ञान

सृष्टि के संपूर्ण जन-जीवन का कल्याण भाव

बुद्ध, कृष्ण, राम,नानक, तुलसी की अमृत वाणी

मानवीय गरीमा-अस्मिता को पुनर्जीवित दान

वीर योद्धाओं-विभूतियों की अमरगाथाएँ मात्र

अनुकरणीय और अनुसरणीय बने... निर्धारित हो...


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     ((3))



 दर्द की एक नदी थमी है


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'दर्द की एक नदी थमी है'...इससे बेहतर

 क्या परिभाषित होगी

 एक स्त्री ..नदी ही तो है ...


जिसकी मंजिल बस सफर है

औरों के लिए निरंतर क्रियाशील

  हरपल  प्रवाहित....


ईश्वर ने स्वयं नदियाँ  नारी-स्वरूप में रची

गंगा,जमुना, सरस्वती, कृष्णा, कावेरी 

उतंग शिखर से उतरकर नीचे सबके लिए...


निर्झर, भव्य, आक्रामक तंरंगित-बौछारों को

खुबसूरती से ,सलीके से धाराओं मे  समेटकर...

संपूर्ण बिडम्बनाओं से बेपरवाह


जिस ओर  संपूर्ण, भव्यता से,एकनिष्ठ  बही..

स्नेह, करूणा की अतुल्य जलराशि से सींचित किया कण-प्राण अपने अहं की आहुति देकर..


खुद स्वेच्छा से हर्षित छोटी धाराओं को जनमीं

फिर हरबार लोग अपने दंभ,

क्षुद्र स्वार्थ और सुविधा से

इसकी धाराओं को कांटा-मोडा

बांधा मनमाने रूप में

दर्द-चुभन के अपमानित

चट्टानों से पाटा-रोका अभिसप्त कर

ओजस-स्वयंभू  बहावों को....


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       "जिन्दगी"


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कुछ कही, कुछ अनकही  दास्तां 

है ---ये जीवन-डगर

टुकडों में बटे एहसास, कुछ वहां पनपे ,

कुछ घटे यही

चाहतों की बेजोड़ उधेडबुन 

मजबूरियों की अपनी सियासत

हर वक्त एक नजर की तलाश जारी

जिन्दगी का अक्स उभर आये जिसमें...


उम्र की आडी-तिरछी पगडंडियों पर

कभी मासूमियत से खुद को तैनात किया राहों में

तब इसके वहशी अधरों ने

निचोड लिया मेरी निश्छलता-भोलापन

लडखडाती आवाक्.. 

मैं खडी रही  

  पथराई ..स्तब्ध--


गुजरती गई मेरे सामने

उलटी-पलटी दुनिया की अजीब तसवीरें

सहसा गुजरती हवा की कहानी ,बदलते फिजा की जुबानी

आविष्कार, खोजो का विस्मयकारी सिलसिला

अनायास ही मुझे आंदोलित कर गया

सहजता से मैने ठंडी सांसे भर ,सजग हो

नयनों में माधुर्य भर चाही इसकी दोस्ती...


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--किसकी मुट्ठी में है


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        हाँ भिन्न-भिन्न इंसान

         देश से परदेश तक

         अनगिनत बेहिसाब                 

समुची धरती में

         अनंत आसमान तक

          फैले-सिमटे/    सुषुप्त-स्फूर्त...  

              कैसी-कैसी रस्मे /कायदे  हजार

              जीवन है–----रंग-रुप बेशुमार

            पर जीने के सलीके

            निधार्रित है सारे


              वो निर्मित करेंगे--------

              या फिर संशोधित करेंंगे

             प्रायोजित/प्रायोगिक रास्ते..

             पर चलने के ढ़ग /बढ़ाने को कदम 

             निर्देशों मे अंकित है..

          यूं तो भाषाएँ अनगिनत हैं

        यकीनन ..

            विषय-वस्तु /बोलने का लहजा

            लगभग तयकर रखा है

            पूछो तो जरा---

           सत्ता, पैसा, कौशल, तकनीक

          किसकी मुट्ठी मे है सारे...

           क्या राजतंत्र ,क्या प्रजातंत्र ..

           नहीं गुजांइश के पुल शेष ...  भ्रमण कर सके जहाँ

           स्वतंत्र सोच-इरादों के कदम


         सभी अधीन-पराधीन हुए

            किसी-न-किसी मदारी के..

      जो क्षुद्र-छद्म /मक्कार प्रपंचोंं से

          नैसर्गिक मान्यताओं-वृत्तियों  को pl

         प्रश्न चिन्ह के बाणों से बेधते

         तेरे आत्मबोध-आत्मसत्ता को

        हिचकोलों मे डूबोते

         तेरा इति क्या/अंत कब

          सब मापदंड वहीं तय करते

          वो उत्पादित करेंगें सामान 

         हमारी जरूरतों को जज्बातों मे पिरोके

          नयी चाहतो को

           इश्तहारों का सुर देकर

            पर कीमत लगाते

             अपने कायदे-कानून को

   अमिट- अकाट्य सुनिश्चित कर

      अपने अदृश्य एकछत्र सत्ता 

        स्थापित करते

              खुद के स्वार्थ मे

             परमार्थ विर्सजित कर...!!!!!

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            .


               


              


                 



-मिलकर आसां हुआ है'


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#"मिलकर आसां हुआ है " ऐ जिन्दगी


जबसे तेरा दामन संभाला है


पहले थी नितांत अकेली ,सहमी-सिमटी सी


भीड. की नजरों से बचकर..  खुद के उधेड़बुन में


उम्मीदों से लदी...राह पर हांफती हुई..


शब्दों का एक पुल जबसे आया 


एक अदम्य चाहत-सा जागृत हो आया


भ्रमों के चंगुल से उबरकर


सहारो की आस झटककर


तमाम अवरोधों मे...


सब्र और उत्कंठा साथ लेकर


हरशैय आशंका को रौंदकर 


चलते जाने का अद्भूत सुकून..!!


जैसे जन्म हो नये एक पथिक का..


एक अनूठी यात्रा के अभियान पर 


मौसम-दर-मौसम चलना


अंतर के नब्ज टटोलते


चांद-सूरज की आंख-मिचौली मे


हवाओं का साक्षी,नदियों का हमराही


अंधेरे-उजाले के बहुरंगी सवालों में


उम्र की पगडंडियों के चहुंओर


सत्य का आलोक बिखेरने..।



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अर्चना श्रीवास्तव 



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