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"ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..."
खुसरो साहब को भी नहीं पता किसका दिल है
तुम्हारा दिल है या हमारा दिल है...
आज एक गीत से मुठभेड़ हो गई। गीत अपने समय में जितना लोकप्रिय हुआ था, उतना ही आज भी लोकप्रिय है। लोकप्रिय होने के साथ यह कर्णप्रिय भी है। गीत के बोल काफ़ी अजीब ओ गरीब हैं। फिल्म 'गुलामी' के इस गीत को भी लिखा गुलज़ार साहब ने ही है। गीत के बोल "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." का अर्थ मालूम नहीं था। हो सकता है मेरी तरह कई अन्य लोगों को भी "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." का अर्थ शायद न पता हो। लेकिन आज जब यह गीत एक बार फिर सुना तो "ज़िहाल ए मस्कीं मकुन ब रंजिश..." फितरतन इस पंक्ति का अर्थ जानने की जिज्ञासा हुई। मेरी पड़ताल आगे बढ़े उससे पहले आप उस गीत से रू-ब-रू होइए जिसकी वजह से यह बात छिड़ी है
"जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश
बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है
सुनाई देती है जिसकी धड़कन
तुम्हारा दिल या हमारा दिल है
वो आके पहलू में ऐसे बैठे
के शाम रंगीन हो गई है
जरा जरा सी खिली तबीयत
जरा सी गमगीन हो गई है
जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश...
कभी कभी शाम ऐसे ढलती है
के जैसे घूँघट उतर रहा है
तुम्हारे सीने से उठता धुआँ
हमारे दिल से गुजर रहा है
जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश...
ये शर्म है या हया है क्या है
नजर उठाते ही झुक गयी है
तुम्हारी पलकों से गिर के शबनम
हमारी आँखों में रुक गयी है
जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश
बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..."
बाकी तो सब ठीक है। गीत भी आला-तरीन है। मामला बस "जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..." पर ही अटका है। और यही पंक्तियां इस पूरे गीत का शबाब हैं। "जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..." का मानी न जानते हुए भी यह गीत बार-बार सुनने की इच्छा होती है।
फारसी की एक अदीब मित्र से "जिहाल-ए-मस्कीं मकुन-ब-रन्जिश बहाल-ए-हिजरा बेचारा दिल है..." का अर्थ पूछा तो उन्होंने इसका अर्थ कुछ यूं बताया -"गरीब की बदहाली को नजरअंदाज न करो"। एक और उस्ताद से जानना चाह तो उन्होंने इन पंक्तियों की तफसील बताते हुए कहा कि "ज़िहाल" का अर्थ होता है -ध्यान देना या गौर फ़रमाना, "मिस्कीं" का अर्थ है -गरीब, "मकुन" के मायने हैं -नहीं और "हिज्र" का अर्थ है -जुदाई। उनके अनुसार इन पंक्तियों का भावार्थ यह निकला कि "मेरे इस गरीब दिल पर गौर फरमाएं और इसे रंजिश से न देखें। बेचारे दिल को हाल ही में जुदाई का ज़ख्म मिला है।"
लेकिन... इन पंक्तियों का यह अर्थ जान कर भी तस्ल्ली नहीं हुई तो सिरखपाई का यह सिलसिला आगे बढ़ता हुआ अमीर खुसरो तक जा पहुंचा। गुलज़ार साहब के "गुलामी" फिल्म के लिए लिखे गए इस गीत की पंक्तियां असल में अमीर खुसरो की एक कविता से प्रेरित है। जो फारसी और ब्रज भाषा के मिले-जुले रूप में लिखी गई थी। अब जरा अमीर खुसरो के लिखे पर भी गौर फ़रमाया जाए। जिसकी एक पंक्ति फारसी में तो एक ब्रज भाषा में लिखी गई है...
-"ज़िहाल-ए मिस्कीं मकुन तगाफ़ुल
दुराए नैना बनाए बतियां।
कि ताब-ए-हिजरां नदारम ऐ जान,
न लेहो काहे लगाए छतियां।
शबां-ए-हिजरां दरज़ चूं ज़ुल्फ़
वा रोज़-ए-वस्लत चो उम्र कोताह,
सखि पिया को जो मैं न देखूं
तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां।
यकायक अज़ दिल, दो चश्म-ए-जादू
ब सद फ़रेबम बाबुर्द तस्कीं,
किसे पड़ी है जो जा सुनावे
पियारे पी को हमारी बतियां।
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