बहुत खल रहा है इब्राहिम अश्क का जाना
"शीशे का आदमी हूँ,मिरी जिंदगी है क्या?
पत्थर है सबके हाथ में,मुझको कमी है क्या?"
जैसे कभी न भूलनेवाली गजल के हरदिल अजीज शायर इब्राहिम अश्क का रविवार की शाम चार बजे मीरा रोड से सटे मेडीटेक मल्टी स्पेशियलिटी अस्पताल में निधन हो गया।वे कोरोना से पीड़ित थे और शनिवार की सुबह उन्हें इस अस्पताल में भर्ती कराया गया था।उन्हें बुखार व खून की उल्टियाँ हो रही थीं।यह जानकारी उनकी बेटी मुसफा खान ने दी।सोमवार को मीरा रोड के एक कब्रिस्तान में उन्हें सुपुर्दे खाक किया जाएगा।
20 जुलाई,1951 को मध्यप्रदेश में जन्मे इब्राहिम अश्क मूलतः शायर थे।वे वाया पत्रकारिता फिल्मों में आये।मुझे याद हैं 1978 के वे दिन जब मैं दिल्ली प्रेस की पत्रिका 'मुक्ता' का प्रभारी था तब अश्क जी 'शमा','सुषमा' से होते हुए दिल्ली प्रेस की तब की पत्रिका 'भूभारती' से जुड़े थे और प्रभारी राकेशलाल श्रीवास्तव के साथ पहले पंचायतों , फिर राजनीतिक पत्रकारिता में चर्चित रही इस पत्रिका के रचनात्मक पक्ष को खूब मजबूती देने में जुटे रहते थे।उनका लंच ज्यादातर मेरे साथ सरदार के ढाबे पर ही होता।कभी श्रीशचंद्र मिश्र,कभी ज्योतिर्मय,कभी आलोक तोमर,कभी नवोदित,कभी राकेश श्रीवास्तव ,कभी दिनेश तिवारी तो कभी विश्राम वाचस्पति हमारे साथ होते।
तब उनकी जुबान पर नये शेर और आंखों में सिर्फ एक सपना रहता-मुंबई जाना है और फिल्मों में गीत लिखने हैं।वे लिखते थे:
"उस शख्स के चेहरे में कई रंग छुपे थे,
चुप था तो कोई और था, बोला तो कोई और"।
यह भी उन्हीं की कलम से निकला था:
"तिरी जमीं से उठेंगे तो आसमाँ होंगे,
हम जैसे लोग जमाने में कहाँ होंगे?"
और एक दिन वे धीरे से मेरे पास आ कर बोले,"पाठक मैंने अभी-अभी परेश नाथ जी को इस्तीफा दे दिया है।एक-दो दिन में मुम्बई निकल जाऊंगा।मेरा आसमान वहीं है।"
फिर वह दिन भी आ गया जब हम कुछ मित्रों ने उन्हें विदा दी।झंडेवालान एस्टेट में स्थित दिल्ली प्रेस की परंपरा से उलट उनके साथ सरदार के ढाबे पर ही भोजन किया और गुमशुम से हम आठ-दस लोग उस बस स्टॉप तक उनके साथ गये जहाँ से उन्हें अपनी बस पकड़नी थी।
1986 के मार्च में जब मैं 'धर्मयुग' (टाइम्स ऑफ इंडिया) जॉइन करने आया तो उन्हें खोज ही रहा था कि एक दोपहर 'माधुरी' से जुड़े राकेश रंजन (जो दिल्ली प्रेस में फिल्मी लेख लिखते थे) करीब आकर बोले,"इब्राहिम अश्क का यह नम्बर है।वे बहुत खुश हुए जब मैंने आपके बारे में बताया।बात कर लेना।"
तब तक अश्क जी ने मुम्बई में अपने पैर जमा लिए थे।वे एलबम और मुशायरे कर रहे थे और एक हिट फिल्म का इंतजार।1996 में टाइम्स ऑफ इंडिया से इस्तीफा दे कर जब मैं 'कुबेर टाइम्स' का संपादक बना तो लाल गुलाबों का गुलदस्ता लिए वे महेंद्र कार्तिकेय के साथ मेरे केबिन में थे।वे 'कुबेर टाइम्स' के नियमित लेखक भी थे।पर तब भी उनके होठों पर एक ही सवाल था-'एक हिट फिल्म का इंतजार है'।
वह दिन भी आ गया जब साल 2000 में रितिक रोशन की पहली फिल्म 'कहो ना प्यार है' रिलीज हुई और फिल्म का शीर्षक गीत रातों रात आसमान में गूंजने लगा।यह गाना अश्क जी ने ही लिखा था।फिर सफलता उनके सँग-साथ रही।इसी गीत के लिए उनका फिल्मफेयर व आइफा एवार्ड के लिए नॉमिनेशन भी हुआ था।
बाद में मेरे शहर भी बदले,नौकरियाँ भी पर परिवार और स्थायी ठिकाना मुम्बई ही रहा।अश्क जी मेरे,मैं उनके हाल लेता रहा।वे अपने शब्दों और उनकी ऊंचाइयों से प्रसन्न थे पर फिल्मी उतार चढ़ाव से तनिक रुष्ट भी।
पर आज मैं उनकी वादाखिलाफी से आहत हूँ।उनका वादा था कि मीरा रोड में आ जाने के बाद फिर लौटेंगे दिल्ली प्रेस वाले दिन।वे मीरा रोड आ भी गये।बस भी गये।वह भी मेरे घर के कुछ कदम की दूरी पर।पर वे यह संदेश देना भूल ही गये की अब हम पड़ोसी हैं।आज जब यह पड़ोसी अनन्त यात्रा पर चला गया तब यह उजागर हो रहा है कि वे उतने ही नजदीक आ गए थे,जितने दिल के करीब थे।
आंखें नम,गला भारी और शब्द धीरे धीरे साथ छोड़ रहे हैं।आपको कैसे कह दूं अलविदा?कल आप सुपुर्दे खाक हो जाएंगे पर मन और दिल के हर वक्त करीब रहेंगे अश्क जी।
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