शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2021

युद्ध पीड़ित महिलाओ के दुख क़ो नया आयाम दिया है गरिमा ने / राकेश रेणु

 #माणिकचौक_1


कितने मित्रों का कर्ज़ है मुझ पर- प्रेम और भरोसे से आबद्ध! उनकी बेशक़ीमती किताबें आती हैं लेकिन अपनी काहिली में  उन पर दो शब्द भी नहीं लिख पाता। ख़ुद इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा। मेरे भीतर के क़ाहिल को अपनी तंद्रा तोड़नी होगी। भरोसे पर खरा उतरना होगा। इसलिए तय किया है कि इस पेज पर साथियों की किताबों में से पसंदीदा की थोड़ी-थोड़ी ही सही, चर्चा करता रहूँगा। इनमें अभी-अभी साया हुई किताबें होंगी और कुछ थोड़ी पुरानी भी, जैसेकि चार साल क़बल, 2017 में प्रकाशित प्रोफ़ेसर गरिमा श्रीवास्तव की ‘देह ही देश’ जिसे उन्होंने क्रोएशिया प्रवास डायरी कहा है। कहने को इस किताब के प्रकाशन के चार साल पूरे होने को हैं लेकिन इसकी चर्चा आज भी है, लंबे समय तक रहेगी क्योंकि इस तरह की पृष्ठभूमि वाली किताबें हिन्दी में कम ही लिखी जाती हैं।


‘देह ही देश’ को केवल डायरी कहना पर्याप्त नहीं है, इसे सीमित करना है। यह जितनी डायरी है उतना ही यात्रा वृत्तांत, जितनी आत्मकथा है उतना ही पत्र संवाद, जितनी स्मृति है उतनी ही पत्रकारिता। यह कुछ और ही चीज है- विरल रूप से तरल और सरल। सीधे हृदय में समाती, दुनियाभर का साक्षात्कार कराती, दुःख से संवाद करती, एकाकार कराती। लेखिका के ज़ेहन में वे सब चीज़ें हैं - कविता, कहानी, समालोचना, इतिहास और विमर्श - वे सबको साथ लेकर चलती हैं जो आमतौर पर स्त्रियों की ख़ूबी होती है। 


विद्वान कहते हैं, अनुभूति पहले आती है भाषा उसके बाद और अभिव्यक्ति उसके भी बाद। यह जो गहराई है इस पुस्तक की, अनुभूति की गहराई है, भाषा जिसे अभिव्यक्त करती है। लेखिका क्रोएशिया और बोस्निया हर्जेगोविना की युद्ध पीड़ित, बलत्कृत और तरह-तरह से दमित स्त्रियों की पीड़ाओं से इस क़दर बोसीदा हैं कि दर्द उनकी भाषा और अभिव्यक्ति में स्वत: चला आया है - पढ़ने वाले को भीतर तक भिंगोता, नम करता। वह स्वयं उस पीड़ा में डूबती-उतराती रहीं, इस हद तक कि बार-बार उनके अवसादग्रस्त हो जाने की आशंका पैदा हुई। अजनबी देश में अध्यापक-समालोचक की प्रचलित प्रकृति से अलग जैसा शोधपूर्ण लेखन उन्होंने किया है और उसके लिए जो यात्राएँ की, जिन-जिन जगहों पर गयी, मिलीं लोगों से, वे भी उनकी इसी गहरे इन्वॉल्मेंट की कहानी कहती हैं।


क्रोएशियाई बोस्नियाई स्त्रियों की यह लोमहर्षक गाथा ‘देह ही देश’ का मुख्य प्रतिपाद्य है। पुस्तक का तीन चौथाई और लेखिका के प्रवास के तीन चौथाई हिस्से की डायरी इनके वृत्तांतों और निहितार्थों से भरी है। लेखिका का स्त्री मन-मस्तिष्क इन स्त्रियों के मार्फ़त न केवल उनके मूल देश भारत, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप, एशिया और उससे भी बढ़कर पूरे विश्व की स्त्रियों की दशा का, उनके प्रति पितृसत्तात्मक समाज दृष्टि का विश्लेषण करता है।


किताब की पृष्ठभूमि में क्रोएशिया की राजधानी है जहाँ रहते हुए लेखिका योरोप के अल्पज्ञात पक्षों से अवगत होती हैं, 1992 से ’95 तक चले सर्बिया-क्रोएशिया-बोस्निया हर्ज़ेगोविना युद्ध के दौरान हुए अकल्पनीय दमन से अवगत होती हैं। इस युद्ध में सर्बियाई सैनिकों की बर्बरता जैसा दूसरा उदाहरण आधुनिक विश्व इतिहास में नहीं है। इस कल्पनातीत जेनोसाइड के मूल में अंध राष्ट्रवाद है, दूसरी राष्ट्रीयताओं को घृणित और त्याज्य मानने की प्रवृत्ति। इतिहास बार-बार हमें सावधान करता है कि राष्ट्रवाद की अति ऐसी ही विध्वंसक स्थितियाँ पैदा करती है। क्रोएशिया और बोस्निया के ख़िलाफ़ युद्ध का एकमात्र मक़सद क्रोएशियाई और बोस्नियाई लोगों, ख़ासकर मुसलमानों के जीवन को इतना दूभर बना देना था कि वे अपने घर, खेत, खलिहान छोड़कर भाग जाएँ जिससे कि बृहत्तर सर्बिया का सपना पूरा हो सके। 


दुनिया का इतिहास गवाह है कि सारे युद्ध स्त्रियों की देह पर ही लड़े गए। वही उनकी पहली और आख़िरी भोक्ता होती हैं। योद्धाओं का पौरुष औरतों के दमन से तुष्ट होता है। योद्धाओं का ही क्यों, पुरुष मात्र का! गहरी पीड़ा से भरकर गरिमा कहती हैं, ‘ऐसा क्यों होता है, युद्ध कहीं हो, किसी के भी बीच हो, मारी तो जाती हैं औरतें ही।’ और, ‘स्त्रियों की देह पर नियंत्रण करना युद्ध नीति का ही एक हिस्सा होता है जिससे तीन उद्देश्य सधते हैं - पहला, आम नागरिकों में भय का संचार, दूसरा नागरिकों का विस्थापन और तीसरा सैनिकों को बलात्कार की छूट देकर पुरस्कृत करना।’


बोस्निया सरकार ने इस युद्ध के दौरान 50,000 स्त्रियों के यौन शोषण की रिपोर्ट दी जबकि यूरोपियन यूनियन के जाँच कमीशन ने लगभग 20,000 से ऊपर स्त्रियों को बलत्कृत-घर्षित किए जाने की संख्या को प्रामाणिक माना। उन स्त्रियों को अकल्पनीय दैहिक शोषण और अमानवीय यातनाओं से दरपेश होना पड़ा। प्रतिरोध करने वाली स्त्रियों के स्तन काट लिए गए, अंग-भंग किया गया, यातना दे-दे कर मार डाला गया। यंत्रणादायी जीवन जीते हुए अनेक की मौत हो गई, अन्य अनेक पागल हो गईं या देह बाज़ारों में पहुँच गईं अथवा उन्हें देह व्यापार को ही अपना पेशा बनाना पड़ा। कुछ स्त्रियों ने अपने आत्मबल की बदौलत नए सिरे से जीवन आरंभ करने का संकल्प लिया हालाँकि अतीत की स्मृतियाँ उनका पीछा नहीं छोड़तीं। लेखिका खोज-खोजकर ऐसी स्त्रियों से मिलती हैं, उनकी कथाएँ जानने की कोशिश करती हैं और उन्हें अपनी डायरी का हिस्सा बनाती हैं। कुछ भी हो, अमानवीयता की शिकार हुई स्त्रियों की वास्तविक संख्या घोषित संख्या से कहीं बड़ी है।


प्रवास काल का पहला चौथाई दिसंबर (संभवतः 2008) से आरंभ होकर मई (संभवतः 2009) तक का समय है। इस अंश में लेखिका अपने देश से बाहर एक यूरोपीय देश की संस्कृति और समाज को समझने का यत्न करती हैं, बार-बार अपने देश से उनकी तुलना करती हैं। उनका संवेदनशील मन लौट-लौट आता है अपने देश, शांतिनिकेतन के कुंजों और भारत के दूसरे शहरों की गलियों में जहाँ से उनकी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। दोनों भूभागों की आबोहवा, संस्कृति, लोग, रहन-सहन के तौर तरीक़ों के बीच सामंजस्य बिठाने की कोशिश प्रवास काल और पुस्तक के पहले चौथाई का मुख्य प्रतिपाद्य है। एक प्रकार से इस पहले चौथाई में पर्याप्त विविधता है। इसमें लेखिका का स्त्री विमर्शकार है, उसका बहुपठित और बहुभाषी व्यक्तित्व है जो बांग्ला भाषा और कवींद्र रवींद्र से उनका लगाव है जो अनेक रूपों में - कविताओं और गाथाओं मैं प्रकट होता है। इसी चौथाई हिस्से में सिमोन-द-बोउवार हैं और जो लोग उन्हें नहीं जानते अथवा कम जानते हैं उनके लिए सिमोन के लेखन के साथ-साथ उनके व्यक्तिगत जीवन से अवगत कराने वाली झलकियाँ भी हैं।


‘देह ही देश’ को पढ़ने के बाद विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि गरिमा श्रीवास्तव यदि स्त्री विमर्शकार न होतीं तो बेहतर कवि होतीं, यदि कथेतर न लिखतीं तो बेहतर कथाकार होतीं। लेकिन वे एक साथ यह सब हैं। ‘देह ही देश’ इसकी पुष्टि करती है। उनके ज़ेहन में वे सब चीज़ें हैं - कविता, कहानी, समालोचना, इतिहास और विमर्श - वे सबको साथ लेकर चलती हैं जो आमतौर पर एक संवेदनशील विमर्शकार की ख़ूबी होती है। उन्होंने क्रोएशिया और बोस्निया की युद्ध पीड़ित स्त्रियों से के दुख को वैश्विक बनाया है और युद्ध के उद्योग को, युद्धों की तिजारत करने वाले लोगों को बेनक़ाब किया है।



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