बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

झूठ का जाल / ओशो

 मुल्ला नसरूद्दीन का एक युवती से नया-नया प्रेम हुआ था। युवती ने एक दिन बातों-बातों में कहा कि कभी हमारे घर आइए न!


नसरूद्दीन बोला: ‘जरूर-जरूर, क्यों नहीं!’


दूसरे दिन मुल्ला युवती का पता लेकर बहुत खोजे, लेकिन मकान कुछ ऐसा कि मिले ही न। आखिर एक वृद्ध व्यक्ति को रोककर मुल्ला ने पूछा कि बड़े मियां, क्या आप बता सकते हैं कि ये मिस सलमा कहां रहती हैं?


वृद्ध ने ऊपर से नीचे तक नसरूद्दीन को देखा और पूछा कि क्या मैं आपका परिचय जान सकता हूं कि आप कौन हैं?


नसरूद्दीन बोला: ‘जी, मैं उनका भाई हूं।’


वृद्ध बोला: ‘बड़ी खुशी हुई आपसे मिलकर। आइए-आइए, मैं उसका पिता हूं!’ झूठ कितनी देर चलेगी? एक कदम भी न चली और चारों खाने चित हो गए! अब पिता जी से ही मिलना हो गया, जिनका पहले कभी दर्शन ही न हुआ था। और एक झूठ निकलती है तो पीछे हजार झूठें निकल आती हैं, क्योंकि एक झूठ को सम्हालने के लिए और झूठों की जरूरत पड़ती है। झूठ की एक खूबी है कि तुम्हें एक झूठ को अगर सम्हालना हो तो उसके सहारे के लिए दस झूठें खड़ी करनी पड़ती हैं। फिर हर दस झूठ को सम्हालने के लिए और दस-दस झूठें। इसका कोई अंत नहीं है।


सत्य की एक खूबी है: सत्य अकेला खड़ा हो जाता है। उसके लिए किसी सहारे की कोई जरूरत नहीं होती। सत्य अपना सहारा है। यही तो उसकी स्वतंत्रता है। यही तो उसका बल है, उसकी प्रतिभा है, उसकी ओजस्विता है। झूठ को तो लाख उपाय करो, तुम्हें और झूठ लाने ही पड़ेंगे। और कहीं न कहीं तुम फंस जाओगे, क्योंकि झूठ का इतना बड़ा जाल तुम सम्हाल न पाओगे।

ओशो

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