🍁
फिर टूट गया प्रेम तो मुल्ला गया, जो-जो चीजें उसने भेंट की थीं, वापस मांगने--कि मैंने छल्ला दिया था, चूड़ियां दी थीं, वे सब मुझे वापस कर दो।
स्त्री भी गुस्से में थी, उसने सब उठा कर फेंक दिया। मुल्ला फिर भी खड़ा था।
उसने कहा, अब क्या खड़े हो? लो सामान अपना और रास्ता लगो!
मुल्ला ने कहा, और मैंने जो पत्र लिखे थे, वे पत्र भी मुझे लौटा दो।
वह स्त्री भी थोड़ी चौंकी कि सोने की अंगूठी मांग लो, ठीक है; मोतियों का हार दिया था, मांग लो, ठीक है। लेकिन पत्र! उसने कहा, पत्रों का क्या करोगे?
मुल्ला ने कहा, अब तुमसे क्या छिपाना! मुहल्ले के एक पंडित जी से लिखवाता था। हर पत्र के लिए एक रुपया दिया है। और अभी मेरी जिंदगी बाकी है, अभी फिर प्रेम करूंगा। ये पत्र काम आ जाएंगे। नहीं तो फिर से लिखवाने पड़ेंगे।
प्रेम-पत्र भी उधार हैं, वे भी किसी और से लिखवाए गए हैं! तो तुम्हें हंसी आती है। लेकिन तुम्हारी प्रार्थना? वह भी तो प्रेम-पत्र है परमात्मा के नाम, प्रेम की पाती है। वह भी तो उधार है। वह भी तुमने पंडितों से सीख ली है। वह भी तुम्हारी अपनी नहीं है।
अगर तुम्हारे हृदय से उठे, फिर चाहे तुम्हारे शब्द तुतलाते हुए ही क्यों न हों, पहुंच जाएंगे। लेकिन पुकार अपनी हो, बासी न हो, उधार न हो। सीधी-सादी हो, औपचारिक होने की जरूरत नहीं। बहुत अलंकृत नहीं चाहिए।
कोई परमात्मा सिर्फ संस्कृत ही समझता है, इस भ्रांति में मत रहना--कि तुम जब संस्कृत में प्रार्थना करोगे, तब समझेगा। तुम ही न समझोगे तो परमात्मा क्या खाक समझेगा! पहली समझ तो तुम्हारी तरफ घटनी चाहिए। और तुमने अगर समझी तो तुम्हारे समझने में ही परमात्मा ने समझ ली। और तुम्हारा हृदय अगर ओत-प्रोत हो गया, रसमग्न हो गया, तुम अगर डोल उठे, तुम अगर नाच उठे, अनायास तुम्हारे पैरों में घूंघर बंध गए और तुम्हारे कंठ से स्वर फूटे--फिर चाहे वे बहुत काव्यपूर्ण न हों, जरूरत भी नहीं है--जरूर पहुंच जाएंगे!
हार्दिक जो भी है वह सत्य है। बौद्धिक जो भी है वह असत्य है।
🦋 ओशो
काहे होत अधीर
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें