"हुआ मुझ में रौशन, खुदा देर से":निदा फाजली / हरीश पाठक
आज निदा साहब का जन्मदिन (12 अक्टूबर,1938) है।
यदि सब कुछ ठीक रहता तो हम सब आज एक उत्सवीय शाम उनके घर में मना रहे होते और वे अपनी उम्र के 83 साल पूरे कर चुके होते। पर 8 फरवरी,2016 की दोपहर वे हम से जुदा हो गये-कभी न आने के लिए।
मेरी यह व्यक्तिगत क्षति है।हमारे तार ग्वालियर से जुड़े थे।वे मुम्बई में मेरे स्थानीय अभिभावक थे।उनका घर मुंबई में मेरा दूसरा घर था जहाँ कभी भी,किसी को भी बेधड़क ले जा सकता था।उनके घर की शामें मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत शामें थीं जिनमें कभी मेरे गुरु कमलेश्वर थे,कभी राजेन्द्र यादव,कभी सुधीश पचौरी,कभी रामशरण जोशी,कभी जॉन औलिया,कभी जगजीत सिंह,कभी राजकुमार रिजवी,कभी मुकुटबिहारी सरोज,कभी प्रदीप चौवे,कभी जहीर कुरेशी,कभी घनश्याम भारती तो कभी राहुल देव।ग्वालियर के लोगों के लिए उनके दरवाजे हर वक्त खुले थे।
निदा फाजली उर्दू और हिंदी की वह शख्सियत हैं जिसकी गजलें,गीत सूक्ति वाक्य की तरह हर जुबान पर रहती हैं।उनके 'आप तो ऐसे न थे'हो या,'रजिया सुल्तान'या' सरफरोश' या फिर 'सुर' जैसी फिल्मों के गीत भी आज वही ताजगी देते हैं जो ताजापन उनसे मिलकर,उनसे बातें कर के मिलता था।
पदम श्री व साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित निदा साहब की आत्मकथा 'दीवारों के बीच' और 'दीवारों के पार' उस कालखण्ड का सच है जहाँ आज भी जीवन,जगत और सरोकार बोलते भी हैं,धड़कते भी हैं।
जयंती पर इस शिखर रचनाकार को शिद्दत से याद करते हुए गीली आंखों और भरे गले से सादर नमन।
कहीं नहीं जाते निदा फाजली।वे शब्दों में,अक्षरों में जिंदा रहते हैं।यही उनकी ताकत भी है,पहचान भी।
चित्र सौजन्य:मान्यता
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