शनिवार, 16 अक्टूबर 2021

हिंदी की कक्षा / गरिमा जैन

 

बात उन दिनों की है जब मैं कक्षा आठ में पढ़ा करती थी। उन दिनों मुझे याद है हमारी हिंदी पाठ्यपुस्तक में एक चैप्टर था जिसका नाम था ठूठा आम। हमारी हिंदी की अध्यापिका  को न जाने क्यों वही एक पाठ पढ़ाने का मन करता।


      कई हफ्तों से प्रथा चली आ रही थी कि मैम कक्षा में आती, सर्वप्रथम वह कुछ बच्चों को खड़ा करती जो पाठ्यपुस्तक लेकर नहीं आते थे। क्लास में ना जाने क्यों वह छोटी सी पतली सी किताब लगभग 15 से 20 बच्चे लाना रोजाना भूल ही जाते थे। उन सारे बच्चों को बाहर निकाला जाता और  ठूठा आम पाठ शुरू होता ।

लगभग आठ 10 लाइन पढ़ाई जाती कि बाहर खड़े बच्चे शोर मचाने लगते ।उन्हें चुप कराने के लिए मैम बाहर जाती। सजा के तौर पर हाथ ऊपर उठाने को भी कहती ।  वो अंदर आती और ठूठा आम पाठ लगभग एक पन्ना पूरा होता कि घंटी बज जाती। सारे बच्चे कोलाहल करने लगते।

उनका क्लास ऐसा होता था कि हमें पूरे दिन की थकान जैसे मिटा देता था ।गणित, विज्ञान के क्लास के बाद यह हिंदी की कक्षा हमें बड़ी मनोरम लगती। उसमें हमें अच्छा खासा मनोरंजन भी होता ।हम उस समय यह नहीं सोचते थे कि एग्जाम में हम क्या लिखकर आएगे। हमें तो बस हंसी ठिठोली से मतलब था ।

बात उस दिन की है जब ना जाने कैसे मैं भी पाठ्यपुस्तक ले जाना भूल गई। मैं कक्षा के अच्छे छात्रों में गिनी जाती थी और क्लास के बाहर कभी भी खड़ी नहीं हुई थी। मैं बड़ी असमंजस में पड़ गई कि अब मैं क्या करूं। मैम तो मुझे भी बाहर निकाल देंगी और हुआ भी वही। मैम ने कहा 

"आप अच्छी छात्रा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं आपको छोड़ दूंगी आपको भी सब बच्चों के साथ कक्षा के बाहर खड़े होना होगा "

बचपन से लेकर आज तक मुझे सजा में कभी भी बाहर नहीं खड़ा होना पड़ा था ।आज जब मैं बाहर खड़ी हुई लगभग 15 बच्चों के साथ मुझे ऐसा लगा कि कोई मुझे पहचान ना ले। जब भी कोई टीचर मेरे पास से निकलती लगता है वह मुझ पर कोई टीका टिप्पणी ना कर दे ।जूनियर बच्चे निकलते तो वहां से कहते "अरे दीदी आज आप भी" तभी वहां से प्रिंसिपल निकले जो अक्सर उसी कक्षा के समय निकलते थे। मैं अपनी आंखें चुरा कर चेहरा नीचे झुका के खड़ी हो गई। मुझे लगा भगवान किसी तरह प्रिंसिपल मुझे ना देखें नहीं तो ऐसा ना हो कि अगले साल जब कैप्टन बनने का मौका आए तब मुझे इस चीज के लिए ना चुना जाए ।इस पर उनको यह बात याद रहे कि यह तो सजा के तौर पर बाहर खड़ी थी पर प्रिंसिपल  मेरे ठीक सामने खड़े हो गए और मुझसे ही पूछने लगे "क्या तुमने होमवर्क नहीं किया"

मैंने नज़रे बचाते हुए कहा कि नहीं मैं किताब लाना भूल गयी। उन्होंने कुछ नहीं कहा ,सब बच्चे को देखते हुए आगे बढ़ गए । मैं शर्म से पानी-पानी हो गई ।मुझे बार-बार अपने ऊपर गुस्सा आ रहा था कि क्यों कल गृह कार्य करने के बाद मैंने हिंदी पाठ्यपुस्तक वापस  अपने बैग में नहीं रखी थी ।तभी मैम बाहर आई और सबको वहीं सजा मिली जो रोज मिलती थी। हाथ ऊपर करके खड़े होने की ।मैं भी अपने हाथ ऊपर करके खड़ी हो गई पर जैसे ही मैम कक्षा में प्रवेश करी बच्चों ने अपने हाथों निचे कर लिए ।मैं फिर असमंजस में पड़ गई ।मुझे क्या करना चाहिए? क्या मुझे अपने हाथों को ऊपर रखना चाहिए और आज्ञाकारी  बनना चाहिए या फिर जिंदगी के मजे लेने चाहिए ।आखिर में मैंने जिंदगी के मजे लेना ही ठीक समझा। अब मैं उन 15 बच्चों की जमात में शामिल हो गई थी। मेरी शर्म पानी भर रही थी ।जैसी मैम बाहर निकलती सब चुप हो जाते अंदर जाती तो फिर हँसी ठिठोली ।

मुझे वह कक्षा 8 आज तक याद है जबकि इस बात को बीते कई वर्ष हो चुके हैं ।जब भी मैं उस बात को याद करती हूं मेरे होठों पर मुस्कान आ जाती है ।कभी मुझे कोई सजा नहीं होती थी ,अभी थप्पड़ नहीं खाया था, डांट नहीं खाई थी लेकिन उस रोज क्लास के बाहर खड़े होकर जो आनंद मैंने प्राप्त किया था वह आनंद मुझे दोबारा फिर कभी नहीं मिला ठूठ आम पाठ मुझे आज भी बहुत याद आता है।

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